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सूत्र संवेदना-५
गाथा:
इति पूर्वसूरिदर्शित-मन्त्रपद-विदर्भितः स्तवः शान्तेः ।
सलिलादिभय-विनाशी शान्त्यादिकरश्च भक्तिमताम् ।।१६।। अन्वयः
इति पूर्वसूरिदर्शित-मन्त्रपद-विदर्भितः शान्तेः स्तव ।
भक्तिमतां सलिलादिभय-विनाशी शान्त्यादिकरश्च ।।१६।। गाथार्थ : ___ अन्त में कहा गया है कि पूर्व के आचार्यों द्वारा बताए गए मंत्रपदों से गर्भित शांतिस्तव भक्तिवाले जीवों के पानी आदि के भय का विनाश करनेवाला तथा शांति आदि प्रदान करनेवाला है। विशेषार्थ:
इति पूर्वसूरिदर्शित-मन्त्रपद-विदर्भित:47 स्तवः शान्तेः - अन्त में (कहना है कि) पूर्व के आचार्यों द्वारा बताए गए मंत्रपदों से रचित शांतिनाथ भगवान का यह स्तव...
'इति' शब्द यहाँ समाप्ति का वाचक है अर्थात् अंत में कहना है कि शांतिनाथ भगवान का यह स्तव, पूर्वसूरि दर्शित अर्थात् पूर्व के आचार्यों द्वारा बनाए गए मंत्रपदों से विदर्भित अर्थात् रचित है। - संपूर्ण स्तव की रचना करने के बाद अब स्तवनकार मानदेवसूरीश्वरजी महाराज बताते हैं कि “अंत में मुझे आप से इतना ही कहना है कि यह स्तव मेरी किसी कल्पना का शिल्प या मेरी बुद्धि का चातुर्य नहीं है। वास्तव में पूर्व के आचार्यों ने श्रुतसमुद्र का मंथन करके जो
47. पूर्वे ये सूरयः आचार्याः पण्डितास्तैर्दर्शितानि आगमशास्त्रात् पूर्वमुपदिष्टानि यानि मन्त्रपदानि
मन्त्राक्षरबीजानि तैर्विदर्भितः रचितो यः स तथोक्तः - सिद्धचंद्रगणिकृत शांतिस्तव टीका