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सूत्र संवेदना-५ सुशिवं कुरु कुरु - कल्याण करो, कल्याण करो!
"हे जयादेवी ! श्रीसंघ का कल्याण करें । धर्ममार्ग में आनेवाले विघ्नों को आप दूर करें अथवा कोई भी उपद्रव न आए ऐसे संयोगों का निर्माण करें, जिसके कारण श्रीसंघ निर्भय होकर श्रेय मार्ग में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ सके।" ।
शान्तिं च कुरु कुरु - और शांति करें! शांति करें!
"जब भी संघ में किसी प्रकार का उपद्रव हो तब हे देवी ! आप वहाँ पहुँच जाएँ । उपद्रवकारक दुष्ट देवों को भगा कर उस नगर आदि में शीघ्र शांति करें ।" सदेति तुष्टिं कुरु कुरु - सदा इस प्रकार तुष्टि करें ! तुष्टि करें! तुष्टि अर्थात् संतोष । “श्रीसंघ को साधना के लिए जैसे वातावरण या सामग्री की ज़रूरत हो, आराधना के लिए जो-जो उपकरण वे चाहते हों, उन्हें अर्पण कर श्रीसंघ को शीघ्र संतुष्ट और प्रसन्न करें...
पुष्टिं कुरु कुरु - पोषण करें, पोषण करें! पुष्टि अर्थात् पोषण अथवा वृद्धि । “हे देवी ! साधु-साध्वी श्रावकश्राविका आदि चतुर्विध संघ साधना मार्ग में सुंदर तरीके से आगे बढ़ सकें और उनकी आत्मिक गुणसंपत्ति में वृद्धि हो, ऐसे वातावरण का सृजन करें ।'
स्वस्तिं च कुरु कुरु त्वम् - और (हे देवी) आप क्षेम-कुशल करें। क्षेम-कुशल करें। स्वस्ति अर्थात् क्षेम। “इस नगर में तथा सर्वत्र क्षेम-कुशल प्रसारित