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सूत्र संवेदना-५ "श्री संघ के, संयमी आत्माओं संबंधी या अन्य किसी भी प्रकार के शुभ कार्य में हे जयादेवी ! आपकी सर्वत्र जय हो ! अन्य देवों के प्रभाव से आप कभी भी पराजित न हों! किसी भी प्रकार के सत्कार्य में आप सिद्धि हासिल करें ! सभी प्रकार से आपका उत्कर्ष हो..." ऐसे शब्दों के द्वारा परम पूज्य मानदेवसूरीश्वरजी महाराज अपने सान्निध्य में रहनेवाली जयादेवी को विजय का आशीर्वाद दे रहे हैं। यह गाथा बोलते हुए साधक सोचे, “अहो ! विजयादेवी की कैसी करुणा! जो लोग जैनशासन के प्रति ज़रा भी रुचिवाले हैं और जो किसी भी प्रकार से शांतिनाथ भगवान को नमस्कार करते हैं, उनकी श्रद्धा मज़बूत करने के लिए वे किस उदारतापूर्वक कार्य करती हैं ! हे जयादेवी ! आपसे प्रार्थना करता हूँ आप मेरी आस्था को अखंड रखने में सहायता करें। प. पू. मानदेवसूरीश्वरजी महाराज की तरह मैं भी चाहता हूँ कि ऐसे सत्कार्यों द्वारा
आपका भी यश दिग् दिगंत तक फैले।” अवतरणिका : __इस स्तव के प्रथम विभाग में शांतिनाथ भगवान की १६ नामों द्वारा स्तुति की गई है । उसके बाद अब स्तवनकार श्रीदेवी को संबोधित कर संघ आदि का कल्याण करने की प्रेरणा कर रहे हैं : गाथा :
सलिलानल-विष-विषधर -दुष्टग्रह -राज-रोग-रण-भयतः । राक्षस-रिपुगण-मारी-चौरेति-श्वापदादिभ्यः।।१२।।