________________
११०
सूत्र संवेदना-५ • काम करते-करते कार्य करने की कुशलता प्राप्त हो, उसे
'कार्मिकी बुद्धि' कहते हैं। • परिणाम को अर्थात् फल को देखनेवाली बुद्धि को 'पारिणामिकी
बुद्धि' कहते हैं। ऐसे देखें तो ये चारों बुद्धियाँ अश्रुतनिश्रित37 मतिज्ञान के ही प्रकार हैं फिर भी एक अपेक्षा से देखें तो मति और बुद्धि में भेद भी है। इस विषय में विशेषज्ञ सोचें । यह गाथा बोलते हुए साधक को सोचना है कि,
“जयादेवी की कैसी श्रेष्ठ भावना है ! जो भक्तों का हित करती हैं और सम्यग्दृष्टि जीवों को अति प्रिय धृति, रति, मति और बुद्धि देती हैं। मैं न तो भगवान का ऐसा विशेष भक्त हूँ और ना ही मुझमें सम्यग्दर्शन है कि देवी मुझे कुछ दें। फिर भी देवी ! निःस्वार्थ भाव से प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे शांतिनाथ भगवान का एक नादान भक्त मानकर मेरा भी भला करें और योगमार्ग में आनेवाले विघ्नों को दूर करके मुझे स्थिर करें । मेरी बुद्धि को सदा निर्मल रखें,
जिससे मुझे सत्कार्य करने में ही आनंद आए ।" गाथा :
जिनशासननिरतानां शान्तिनतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसम्पत्कीर्तियशोवर्द्धनि जयदेवि विजयस्व ।।११।।
37. पहले जिन पदार्थों का श्रुतज्ञान द्वारा अध्ययन न किया हो, उसे जाना न हो, देखा न हो, तो भी
स्वाभाविक क्षयोपशम की विशेषता से जो ज्ञानशक्ति-पदार्थ की बोधशक्ति प्रकट होती है जिसके कारण श्रुत के अध्ययन के बिना सहजता से पदार्थ का बोध होता है, उसे अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान कहा जाता है।