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________________ लघु शांति स्तव सूत्र १०९ शक्ति ‘मति' कहलाती है। ऐसी मति, मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है। पर इस क्षयोपशम को प्रकट करने में अनुकूल सामग्री या वातावरण प्रदान करने द्वारा देवी उत्तम प्रेरक बल भी बनती हैं, इसलिए वे 'मतिदा' हैं। स्तवनकारश्री अब कहते हैं, “आप सम्यग्दृष्टि जीवों को बुद्धि प्रदान करनेवाली हों, इसलिए आप बुद्धिदा हों ।" बुद्धि का अर्थ है हितअहित और सार-असार का विवेक करने की शक्ति। ऐसी शक्ति स्वकर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है पर उसमें अन्य निमित्त अवश्य उपकारक बनते हैं। जैसे ज्ञान की प्राप्ति ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है फिर भी सद्गुरु भगवंत और अच्छे शिक्षकों की सहायता के बिना विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए गुरु भगवंत विद्यादाता कहलाते हैं। उसी तरह सम्यग्दृष्टि जीवों में विशिष्ट मति और बुद्धि उनके कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है, पर उनको सानुकूल निमित्त देने का काम देवी करती हैं। इसलिए देवी को 'बुद्धिदा' भी कहा जाता है। सामान्य से ‘मति' और 'बुद्धि' एकार्थक शब्द हैं, फिर भी शास्त्रकार इनका सूक्ष्म भेद बताते हुए कहते हैं कि भविष्य विषयक सोचने और समझने के सामर्थ्य को मति कहते हैं, जब कि वर्तमान विषयक सोचनेसमझने के सामर्थ्य को बुद्धि कहते हैं। बुद्धि के चार प्रकार हैं १. औत्पातिकी बुद्धि, २. वैनयिकी बुद्धि, ३. कार्मिकी बुद्धि और ४. पारिणामिकी बुद्धि। • पूछे गए प्रश्नों का तत्काल सहज प्रत्युत्तर देनेवाली बुद्धि को 'औत्पातिकी बुद्धि' कहते हैं । • गुरु का विनय करने से प्राप्त हुई बुद्धि को 'वैनयिकी बुद्धि' कहते हैं।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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