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वंदित्तु सूत्र
जिस तरह चलने से आत्मा का कल्याण नहीं, पर अकल्याण हो, उस मार्ग पर उस तरह से चलने को जिनेश्वर देव ने अधर्म कहा हैं। ऐसा होते हुए भी, अन्य मत में बाह्य आडम्बर, प्रतिकूलता का अभाव, अनुकूलता भरा आचरण एवं दिखता हुआ सांसारिक लाभ आदि देखकर, यदि अकल्याणकारक मार्ग पसंद आ जाए एवं उस तरफ मन आकर्षित हो जाए तो उसे कांक्षा कहते हैं।
अन्यमत के चमत्कारों को देखकर या उनके साधना मार्ग की सानुकूलता देखकर, ‘अनुकूलतावाला' एवं तत्काल फल देने वाला यह धर्म अच्छा है। अनुकूलतापूर्वक धर्म करके भी मोक्ष मिल सकता है, अतः कष्टकारक जैन धर्म करने से तो सुविधावाला, सरल चर्यावाला, दूसरा कोई धर्म क्यों न करें ?' इस प्रकार अन्य धर्म पालने की इच्छा, वह कांक्षारूप दोष है। यह दोष भी 'भगवान ने कहा है वही सत्य है' ऐसी श्रद्धा का नाश करता है। इसलिए यह सम्यक्त्व व्रत का दूसरा अतिचार है। इस दोष को दूर करने के लिए नाणम्मि में बताए हुए नि:कांक्षा नामक आचार का पालन करना चाहिए ।
विगिच्छा - वितिगिच्छा - धर्म के फल में सन्देह/जुगुप्सा।
धर्माचरण करने से फल प्राप्ति होगी क्या ? ऐसा सन्देह होना या करना, वह वितिगिच्छा नाम का सम्यग्दर्शन का तीसरा अतिचार है। जैसे कि ऐसा सोचना कि 'धर्म की सुन्दर आराधना करके पंडितमरण को पाकर देवलोक में गया हुआ कोई भी वापस नहीं आता, तो तप आदि का फल देवलोक आदि है या नहीं ?'
वितिगिच्छा का दूसरा अर्थ है जुगुप्सा। तत्त्व की जानकार आत्मा समझती है कि आत्मा की शोभा गुण सम्पत्ति से है, सुन्दर वस्त्र या सुशोभित देह से नहीं। सुशोभित देह तो राग का कारण होने से कभी ब्रह्मचर्य व्रत को हानि भी पहुँचाता हैं। इस तत्त्व को समझते हुए मुनि भगवंत ब्रह्मचर्य व्रत की सुरक्षा के लिए देह या वस्त्र की विभूषा नहीं करते, पर उसको मलिन ही रखते हैं। 'वस्त्र आदि की मलिनता मुनि का भूषण है, दूषण नहीं' ऐसा सर्वज्ञ, वीतराग भगवंत ने कहा है फिर भी, पौद्गलिक आसक्ति के 2. वितिगिच्छा के स्थान पर विउच्छ पाठ भी है, इसका अर्थ विद्-जुगुप्सा = तत्त्व के
जानकार की जुगुप्सा।