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दर्शनाचार गाथा-६
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कारण ऐसे सर्वज्ञकथित उत्तम आचार की जुगुप्सा करना, वितिगिच्छा नाम का सम्यक्त्व का तीसरा अतिचार है। इस तत्त्व को नहीं समझने वाले अज्ञानी मल परिषह को सहन करते हुए मुनि भगवंत की जुगुप्सा-दुर्गच्छा करके अपने सम्यक्त्व को मलिन करते हैं।
पसंस - कुलिंगियों की प्रशंसा। जिनका आचार, विचार और वेष शिवसुख प्राप्ति में बाधक है उनको कुलिंगी कहते हैं। कुलिंग के साथ जुड़ा हुआ आचार, विचार वगैरह का पालन करने वाले को भी कुलिंग' कहते हैं। ऐसे कुलिंग के व्यवहार सामान्य से देखने पर पहली नजर में शायद ठीक भी लगते हैं । परंतु अच्छे दिखते हुए वे आचार, विचार या उच्चार मोक्ष मार्ग में बाधक बनते हैं । इसलिए उनकी प्रशंसा करना उन्मार्ग की प्रशंसा है, ऐसी उन्मार्ग की प्रशंसा से अनेक आत्माएँ सन्मार्ग से भ्रष्ट हो उन्मार्ग में चली जाती हैं, सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व से जुड़ जाती हैं एवं उसमें स्थिर भी हो जाती हैं; एसे कुलिंगियों के आचारादि की प्रशंसा करने से इन सब दोषों में निमित्त बनने के कारण साधक स्वयं भी बोधिदुर्लभ बनता हैं। इसलिए, कुलिंगी की प्रशंसा करना यह सम्यक्त्व का चौथा अतिचार हैं। कभी मिथ्यादृष्टिओं के कष्ट, मंत्र, चमत्कार आदि देखकर मंद श्रद्धावाले जीव प्रभावित हो जाते हैं और तब उनका यह धर्म कितना सुन्दर है, उनके गुरुओं में कितनी शक्ति है आदि बोलने द्वारा मिथ्यादृष्टियों की प्रंशसा हो जाती हैं, जिससे सम्यक्त्व मलिन होता है एवं उससे गाढ़ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बंध होता हैं। इसलिए इस दोष से बचने के लिए श्रावक को खास विवेकी बनना चाहिए।
तह संथवो कुलिंगीसु - तथा कुलिंगियों का संस्तव परिचय (वार्तालाप)।
कुलिंगियों का अर्थात् मिथ्यात्वियों का परिचय करना, उनके साथ रहना, बोलना, चलना, भोजन आदि करना। ऐसे मिथ्यात्वियों के परिचय भी सम्यक्त्व का दोष हैं, क्योंकि परिचय बढ़ने से, उनकी क्रियाओं को देखने से या उनकी बातें सुनने से श्रद्धा विचलित होने की संभावना रहती हैं। कई बार इस कारण से ही साधक सत्य धर्म से भ्रष्ट भी हो जाता हैं। इसीलिए निर्मल सम्यग्दर्शन गुण को टिकाने के लिए इस पाँचवें अतिचार के सेवन को भी टालना ज़रूरी हैं। 3. कुत्सितं लिंङ्गं विद्यते येषां ते कुलिङ्गिनः तेषु।