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________________ दर्शनाचार गाथा-६ - भी विषय में आंशिक तरीके से या सर्वांश से, 'यह इस तरह होगा कि नहीं', ऐसा विकल्प होना या करना, उसको शंका कहते हैं। जैसे कि भगवान ने कहा है- 'हम सब आत्मा हैं, निश्चित गतियों में से आए हैं एवं निश्चित गतियों में जानेवाले हैं, अपने-अपने पुण्य-पाप के अनुसार सुख-दुःख पाएँगे।' इस विषय में शंका करना या आत्मा, पुण्य-पाप आदि तत्त्व दिखाई तो देते नहीं इसलिए होंगे कि नहीं ? यदि हैं तो वे सर्वव्यापक होंगे कि शरीर व्यापी ही होंगे? जीव हो तो हलन चलन की क्रिया दिखाई देनी चाहिए । जब कि पृथ्वी, पानी वगैरह में हलन चलन तो नहीं होता फिर भी उन्हें जीव कैसे मान सकते हैं ? भगवान कहते हैं कि निगोद में एक शरीर में अनंत जीव होते है, परंतु वह कैसे संभव है ? और आलू निगोद आदि में जीव तो दिखाई नहीं देते, तो उसमें अनंत जीव हैं ऐसा कैसे मान सकते हैं ? इस प्रकार की मन में शंका करना सम्यग्दर्शन में दोष रूप है । दृढ़ श्रद्धावान श्रावकों के मन में ऐसी शंका नहीं होती, परंतु श्रद्धा दृढ़ न हो एवं अश्रद्धा को उत्पन्न करने वाली अधिक बातें सुनने को मिलें तो ऐसी शंका होने की संभावना रहती है। यह शंका ही सम्यक्त्व व्रत का प्रथम अतिचार है। ७५ - किसी सद्गुरु के मुख से शास्त्र श्रवण कर आत्मा, पुण्य-पाप आदि तत्त्व हैं ऐसा बोध हुआ, थोड़ी श्रद्धा भी प्रकट हुई, तो भी प्रत्येक क्रिया करते हुए यह क्रिया आत्मा के लिए हितकारक हैं या अहितकारक हैं, इस कार्य से मेरा परलोक बिगड़ेगा या सुधरेगा, ऐसा विचार न आता हो, तो समझना चाहिए कि आत्मादि तत्त्वों के विषयों में ज्ञान हुआ हैं, लेकिन दृढ़ श्रद्धा नहीं हुई हैं, भीतर में कही शंका होने की संभावना हैं। इसी तरह से सुख दुःख के निमित्तों में अपने पुण्य-पाप का विचार न करते हुए, अन्य निमित्तों को दोष दिया जा रहा हो, तो भी समझना चाहिए कि कर्म के ऊपर श्रद्धा होते हुए भी कहीं पर इस विषय में शंका है ही। वह श्रद्धा दृढ़ नहीं है । इसलिए ऐसे दोषों से बचने एवं श्रद्धा को मजबूत करने के लिए शंका नाम के दोष को टालना ही चाहिए। इस दोष को टालने के लिए नाणम्मि सूत्र में वर्णित निःशंकित आचार का पालन अवश्य करना चाहिए। कंख - कांक्षा - अभिलाषा । अन्य मत की इच्छा । जिस मार्ग पर जिस तरह से चलने से आत्म कल्याण होता है, उस मार्ग पर उसी तरह से चलने को ही भगवान जिनेश्वर देव ने धर्म कहा है; एवं जिस मार्ग पर
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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