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दर्शनाचार गाथा-५
आने-जाने आदि से सम्यग्दर्शन में जो अतिचार लगे हों उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
पडिक्कमे देसि सव्वं - दिन भर में मुझ से सम्यक्त्व के बाह्य आचारों के विषय में जिस किसी दोष का सेवन हुआ हो, उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
जिज्ञासा : मिथ्यात्वियों के स्थान में जाने, आने या खड़े रहने से 'सम्यक्त्व व्रत' कैसे दूषित होता है ?
तृप्ति : मिथ्यात्वियों की दृष्टि भ्रामक होती है। वे सत्य तत्त्व से परिचित नहीं होते हैं। इस कारण उनके आचार, विचार एवं उच्चार, सत्य मार्ग से मन को चलविचल करनेवाले होते हैं। उनके कुछ आचार बाह्य दृष्टि से रम्य लगते हैं परंतु परिणाम से दारूण होते हैं । जब कि जैनमत के कुछ आचार सामान्य से तो रम्य नहीं लगते, परंतु परिणाम से तो मधुर फल देने वाले होते हैं। जैसे कि जैन धर्म में बताई हुई पारिष्ठापनिका समिति का पालन अर्थात् व्रतधारी को बताई हुई मलमूत्र विसर्जन की क्रिया आज के आधुनिक वर्ग को अच्छी न भी लगे, तो भी उसका फल सुन्दर है, क्योंकि ये क्रिया दूसरे जीवों को भी पीड़ा नहीं पहुँचाती एवं खुद के लिए भी पीड़ाकारी नहीं बनती, जब कि अन्य दर्शनवालों की शरीर शुद्धि की क्रिया बहुत से जीवों के लिए और अपनी आत्मा के लिए भी पीड़ाकारी बनती है।
इसके अतिरिक्त जैनों के उपवास आदि तप कष्टकारी होते हुए भी कर्मक्षय के कारण होते हैं, जबकि अन्य धर्म के ‘फराली' उपवास, नवरात्रि आदि पर्व में होने वाले गरबा आदि ऊपर से अच्छे लगते हैं, परंतु परिणाम से भयंकर होते हैं।
ये बातें सब समझ सकते हैं, फिर भी कभी एक बार मिथ्यामतियों के चमत्कार देखकर यह अच्छा है', 'इसमें कुछ तथ्य है' ऐसा भाव जागृत होने की संभावना रहती है, जिससे जीव जिनमत की श्रद्धा से चलित भी हो सकता हैं। इससे बचने के लिए सावधानीपूर्वक ऐसे स्थानों का त्याग करना हितकारी है एवं उस में ही आत्मा का कल्याण हैं। इसी कारण कहा गया है कि जिस प्रकार उच्च कुलवधुओं का अनीति के धाम में आवागमन करना हितावह नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियों के लिए परधर्मी स्थानों में जाना-आना आदि योग्य नहीं है।