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________________ दर्शनाचार गाथा-५ ७१ विशेषार्थ : जगतवर्ती सब भाव जैसे हैं वैसे ही देखना एवं वैसी ही श्रद्धा करना, वह सम्यग्दर्शन है। जगत के सर्व भावों का यथार्थ दर्शन मोहाधीन जीव स्वयं नहीं कर सकता। इसलिए उन भावों को जानकर उनमें श्रद्धा करने के लिए सर्वप्रथम, 'सर्व वस्तुओं के जानकार, सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा ही मेरे देव हैं, उनके वचनानुसार चलने वाले निर्ग्रन्थ गुरु भगवंत ही मेरे गुरु हैं एवं श्री जिनेश्वर भगवंत द्वारा बताया हुआ धर्म ही तत्त्वभूत है', ऐसी दृढ श्रद्धा पैदा करनी चाहिए। जैसे जगतवर्ती पदार्थों को यथार्थ रूप से जानना सम्यग्दर्शन है वैसे ही ऐसी यथार्थ जानकारी में कारणभूत बने वैसी देव-गुरु-धर्म के प्रति अडिग श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन है। मोक्ष के अनन्य साधन रूप इस सम्यग्दर्शन गुण को प्रकटाने के लिए एवं प्रकट हुए इस गुण को टिकाने (स्थिर करने) के लिए, मिथ्यात्वियों के स्थानों में नहीं आना जाना वगैरह बाह्याचार का एवं निःशंकितादि अंतरंग आचारों का अवश्य पालन करना चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो किस तरह से अतिचार लगते हैं, वह इन दो गाथाओं मे बताते हैं। उसमें इस गाथा में बाह्य अतिचार बताए गए हैं। आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे, अभिओगे अनिओगे' - 'मैंने सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया है, ऐसा उपयोग नहीं रहने से, अधिकार के वश से या कर्त्तव्य से (मिथ्यादृष्टियों के महोत्सव मे या उनके मंदिर में) जाने आने से, उनके स्थान मे खड़े रहने से या उनके स्थान में यहाँ-वहाँ घूमने फिरने से (जो कोई दोष लगा हो)। जीव भावुक द्रव्य है। उसको जैसे जैसे निमित्त मिलते हैं उन उन रूपों मे वह ढल जाता है। इसलिए महामूल्यवान सम्यग्दर्शन को स्वीकार करके उसको टिकाने के लिए खूब जागृत रहना पड़ता है। सम्यक्त्व मलिन न हो जाए इसलिए मिथ्यात्वियों के स्थान में आना-जाना नहीं चाहिए एवं उनके परिचय में भी नहीं आना चाहिए। इसलिए इन सब को सम्यक्त्व विषयक अतिचार स्वरूप बताया है। 1. अणाभोगे अभिओगे अ निओगे - इन तीनों शब्दों में सप्तमी विभक्ति है, परंतु ये तृतीया के अर्थ में है।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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