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________________ ज्ञानाचार गाथा-४ • कषाय ग्रस्त होने से मेरा आचरण सामान्य जन और तिर्यंच जैसा हो जाता है। • अगर धर्म समझकर भी मैं क्रोधादि करूँगा तो धर्म की निन्दा होगी, लोगों की धर्म से आस्था डगमगा जाएगी। • अग्नि तो दूसरों को जलाती है पर कषाय दूसरों को जलाने से पहले मुझे ही राख कर देता है। • इन्द्रियाँ, मन, कषाय, राग-द्वेष और योग की अप्रशस्त प्रवृत्ति न हो इसलिए मुझे पल-पल की सावधानी रखनी आवश्यक है। • जब भी मुझे पता चले कि मैं कषाय के अधीन हो गया हूँ तब मैं अगर उनसे मुक्त न हो पाऊँ तो उन्हें प्रशस्त बनाने का सघन प्रयत्न करूँ। इसके लिए मुझे हर पल निरीक्षण करके सोचना होगा कि, + मुझे कौन से कषाय परेशान करते हैं ? उनकी मात्रा कितनी है ? • किस स्थान में या कौन से विषय के प्रति जुड़ने से कषाय पुष्ट होने के बदले निर्बल बन सकते हैं ? + किस तरह उनका उपयोग करने से स्व-पर का हित होगा ? + प्रशस्त विषय के प्रति कषायों का प्रवर्तन हो तब भी विवेक एवं सावधानी रखने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ? इन सब बातों में मुझे मेरी वृत्ति किस ओर ले जा रही है उसका निर्णय करना हैं और आज से उसे सिर्फ भगवान के वचनों के अनुसार ढालना है। आज से मेरे जीवन का एक ही लक्ष्य होगा, दोषों और कषायों से मुक्त होना।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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