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________________ वंदित्तु सूत्र इस गाथा का उच्चारण करते वक्त श्रावक सोचता है कि, 'कर्म के उदय से प्राप्त हुई पाँचों इन्द्रियाँ ज्ञान का साधन थीं। इनके द्वारा आत्म हितकर ज्ञान प्राप्त कर मैं मेरा कल्याण कर सकता था, परंतु अनादिकालीन अज्ञान एवं मोह के अधीन बनकर मैंने उनको गलत मार्ग में प्रवर्ताया है। राग-द्वेष, चार कषाय एवं मन-वचन-काया के योगों का भी मैंने दुरुपयोग किया है। उससे मैंने मेरी ज्ञान शक्ति को कुंठित किया है, आत्महित का हनन किया है एवं स्वयं ही दुःख की गर्त में गिरा हूँ। अनंत ज्ञान शक्ति के धारक हे प्रभु ! आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे अज्ञान को दूर करो। जिससे मैं रागादि की मलिन वृत्ति से लौट सकूँ एवं आपके प्रभाव से मिली हुई शक्तियों का सन्मार्ग में उपयोग करने की मुझे सद्बुद्धि प्राप्त हो। अगर ऐसा हो तो ही मेरी निन्दा, गर्हा या प्रतिक्रमण सम्यक् बन सकता है।' चित्तवृत्ति का संस्करण : ___सम्यग्ज्ञान से इन्द्रियों, कषाय, योग एवं रागादि को नियंत्रण में रखने के लिए निम्नोक्त मुद्दों पर बारबार चिंतन करना चाहिए। • इन्द्रियाँ और मन ही बंध एवं मोक्ष का कारण बनती हैं। उनका सदुपयोग मुझे संवर, निर्जरा, करवाकर मोक्ष तक पहुँचा सकता है और उनका दुरुपयोग मुझे सातवीं नारकी तक धकेलकर भयंकर दुःखों का भाजन बना सकता है। • समझदार व्यक्ति इन्द्रियों और मन का विवेकपूर्ण उपयोग करके वर्तमान में भी सुखी हो सकता है और भावी को भी उज्ज्वल बना सकता है। • कषाय कातिल जहर जैसा है। एक बार के उसके अनुचित प्रयोग से भी अनंतकाल तक दुःखी होना पड़ता है। • एक बार क्रोध करने से एक साधु चंडकौशिक सर्प बन गया। • एक बार मान करने से प्रभु वीर को भी अनेक बार नीच गोत्र में जन्म लेना पड़ा। • माया के कारण मल्लीनाथ प्रभु को स्त्री बनना पड़ा। • लोभ के कारण मम्मण के क्या हाल हुए ? अगर एक बार कषाय करने से इनके ऐसे हाल हुए तो बारबार कषाय करने से मेरा क्या हाल होगा?
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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