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वंदित्तु सूत्र
प्रशस्त एवं अप्रशस्त कषायों की इन मर्यादाओं को जानकर श्रावक सतत अपनी इन्द्रियों, कषाय तथा योग को अप्रशस्त मार्ग से मोड़कर प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करता है । उसके द्वारा अपने रागादि कषायों को घटाने का प्रयत्न करता है। ऐसा होते हुए भी निमित्त मिलने पर कभी अनादिकाल से अभ्यस्त कुसंस्कार जागृत हो जाते हैं और उसके कारण आत्मा का अहित हो, कषायों की वृद्धि हो, ऐसे मार्ग पर साधक मुड़ जाता है। इसकी वजह से वह छोटे-छोटे निमित्तों में भी निरर्थक क्रोध करता है। धन-सम्पत्ति आदि के लिए लोभ करता है । अपने रूप, सौन्दर्य, धन आदि का गर्व करता है। ऐसी सर्व काषायिक प्रवृत्तियों को अप्रशस्त कषाय की प्रवृत्ति कहते हैं।
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सम्यग्ज्ञान के मार्ग से चलित होकर ही जीव ऐसे अप्रशस्त कषायों के अधीन बनता है। इसलिए कषायों का अप्रशस्त व्यवहार ज्ञानाचार को कलंकित करता है। इस पद का उच्चारण करते वक्त दिनभर में अप्रशस्त कषाय से जो भी अतिचार लगे उनकी निन्दा और गर्हा करनी हैं।
अप्रशस्त योग का प्रतिक्रमण :
मूल में स्पष्ट शब्दों द्वारा तीन योगों का उल्लेख नहीं किया है, तो भी इन्द्रिय एवं कषाय के साथ-साथ उपलक्षण से यहाँ मन, वचन और काया रूप तीन योगों से होने वाले दोषों की भी निन्दा, गर्हा करनी हैं। इन योगों का उपयोग भी प्रशस्त एवं अप्रशस्त ऐसे दो प्रकार का होता है। उसमें शुभ विचार, शुभ चिंतन या शुभ ध्यान में मन को जोड़ना 'प्रशस्त मनोयोग' कहलाता है । आत्म कल्याण के मार्ग में उपयोगी वाणी के व्यवहार को 'प्रशस्त वचन योग' कहते हैं एवं प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति या अन्य कोई भी उचित कार्यों में की हुई काया की प्रवृत्ति को 'प्रशस्त काय योग' कहते हैं। इससे विपरीत आर्त्त या रौद्रध्यान का कारण बने ऐसा चिंतन आदि करना, कर्कश अहितकारी वाणी बोलना, अनुचित क्रिया में काया का प्रवर्तन करना इत्यादि को मन, वचन, काया के व्यापार को अप्रशस्त मन, वचन, काया का योग कहते हैं ।
यह गाथा बोलते हुए ऐसे अप्रशस्त योग से भी जो कर्म बांधा हो, उसकी भी निन्दा गर्हा करनी है।
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