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ज्ञानाचार गाथा-४
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भूमिका का विचार करके, उसकी जितनी भूल हो, जिस प्रकार वह सुधर सकेगा, वह सोचकर उतनी ही मात्रा में उचित रीति से क्रोध किया जाए तो वह क्रोध सामने वाले व्यक्ति को सुधारने में निमित्त बनता है और इसलिए ही उसको प्रशस्त क्रोध कहते हैं।
इससे विपरीत शिष्य की या पुत्र की भूल देखकर आवेश में आ जाए, विवेक रहित वचनों का प्रहार शुरू हो जाए, अपना संयम गँवा दें, सामने वाले व्यक्ति के हित की भावना के बदले 'मेरा कहा क्यों माना नहीं ?' ऐसा मान का भाव आ जाए तो समझना कि ये कषाय प्रशस्त नहीं है । चाहे तुमने अच्छे भाव से किया हो, तो भी कषाय करने का तरीका अनुचित होने के कारण, उसमें विवेक या सावधानी नहीं होने के कारण, वह कषाय प्रशस्त भाव से किया हुआ होने पर भी प्रशस्त नहीं रहता। इस तरीके से कषायों की प्रशस्तता के विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए, नहीं तो कभी प्रशस्त लगता हुआ कषाय भी अप्रशस्त बन कर स्व-पर के हित को हानि पहुँचाने का कार्य कर सकता है।
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जैसे कि अपने ५०० साधुओं को चक्की में पीसने वाले जैन धर्म के द्वेषी पालक मंत्री पर किया हुआ स्कन्धकसूरि का क्रोध । ४९९ शिष्यों को चक्की में पीसने तक समता को धारण करने वाले स्कन्धकसूरि ने जब पालक मंत्री बाल मुनि को पिसने लगा तब विनती की कि 'पहले मुझे पीसो बाद में बाल मुनि को ' । पालक ने जब इस विनती का स्वीकार नहीं किया तब स्कन्धकसूरि को लगा कि 'मेरी इतनी सी बात को भी स्वीकारा नहीं, ठुकरा दिया ?' ४९९ शिष्यों को निर्यामणा कराके मोक्ष तक पहुँचाने वाले स्कन्धकसूरि भी यहाँ चूक गए, मान के अधीन बन गए एवं पालक पर क्रोधित हो गये । इस क्रोध के कारण नियाणा कर बैठे और मृत्यु के बाद व्यंतर देव बने। इस प्रसंग में क्रोध करने के बाह्य निमित्त यानि कि क्रोध का विषय या स्थान तो प्रशस्त ही था पर उसमें अप्रशस्त मान मिलने के कारण प्रशस्त क्रोध भी अप्रशस्त बन गया। देखा जाए तो अगर यह क्रोध किसी के हित को लक्ष्य में रखकर पालक को सुधारने के उद्देश्य से उचित तरीके से किया जाता तो वह प्रशस्त ही माना जाता, परंतु स्कन्धकसूरिजी
क्रोध के मूल में किसी के अहित को रोकने का या किसी का हित करने का प्रशस्त भाव होने के बजाय अप्रशस्त मान मिला हुआ था। अतः वह प्रशस्त न रहकर अप्रशस्त बन गया ।