________________
ज्ञानाचार गाथा-४
विशेषार्थ :
जं बद्धमिदिएहिं (अप्पसत्थेहिं) - अप्रशस्त इन्द्रियों द्वारा जो कर्म बांधा हो।
कान, आँख, नाक, जीभ तथा त्वचा : ये पाँच इन्द्रियाँ है जो शब्द, रूप, गंध रस, तथा स्पर्श के विषयों का आत्मा को ज्ञान कराती हैं। ज्ञान के माध्यम स्वरूप इन पाँच इन्द्रियों का गलत उपयोग करने से जीव को कर्मबंध होता है।
देखने की शक्ति आँख की है फिर भी कमजोर आंख वाला व्यक्ति चश्मे के माध्यम बिना नहीं देख सकता। उसी तरह ज्ञान आत्मा का गुण है, तो भी ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत शक्तिवाली आत्मा स्वयं सर्व वस्तुओं का ज्ञान नहीं कर सकती। उसको रूप देखने के लिए आंख, गंध पहचानने के लिए नाक, शब्द सुनने के लिए कान, रस का अनुभव करने के लिए जीभ एवं स्पर्श का ज्ञान पाने के लिए त्वचा की आवश्यकता पड़ती है। ज्ञान के इन पाँच साधनों को पाँच इन्द्रियाँ कहते हैं। मात्र सम्यग् ज्ञान के साधन रूप से उपयोगी बनती अथवा हितकारी मार्ग में प्रवर्तन करती इन्द्रियाँ, प्रशस्त इन्द्रियाँ हैं; परंतु सम्यग् ज्ञान से विपरीत मार्ग पर,
आत्मा का अहित हो, रागादि भावों की वृद्धि हो वैसी अनुचित तरीके से प्रवृत्त इन्द्रियाँ अप्रशस्त' इन्द्रियाँ कहलाती हैं । इन इन्द्रियों का अप्रशस्त व्यवहार ज्ञान के अतिचार स्वरूप है एवं कर्म बंध का कारण है।
1. प्रशस्त प्रवृत्ति
अप्रशस्त प्रवृत्ति । स्पर्शेन्द्रिय जिन की भक्ति, गुरु की | राग से या आसक्ति उत्पन्न हो इस तरह स्त्री, पुरुष त्वचा
वैयावच्च, ग्लान की सेवा वगैरह | या बालक का स्पर्श करना, आनंद के लिए के लिए त्वचा का उपयोग | मुलायम चीजों का बार बार प्रयोग करना। पाउडरकरना। कोई वस्तु भक्ति के | लिपस्टिक वगैरह सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग योग्य है कि नहीं इसकी परीक्षा | करना, पंखादि की हवा लेनी, मुलायम रेशमी कपड़े
के लिए स्पर्श करना। आदि का उपयोग करना। रसनेन्द्रिय | धर्म कथा करना. तत्त्व के निर्णय | दोषों की वृद्धि हो ऐसी विकथा करना, पर की जीभ करने के लिए चर्चा करनी, निन्दा करनी, चाड़ी-चुगली करनी, राग-द्वेष से
गुणवान आत्माओं के गुण गाना, | इष्टानिष्ट आहारादि का उपयोग करना, रागादि | पंच-विध स्वाध्याय करना। | की वृद्धि हो ऐसा बोलना।