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________________ ज्ञानाचार अवतरणिका सर्व प्रकार के दोषों के मूल समान परिग्रह तथा आरंभ संबंधी पापों का प्रतिक्रमण करके अब क्रमशः ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के विषय में लगे दोषों का प्रतिक्रमण करना है। उसमें प्रथम ज्ञान के अतिचारों की निन्दा, गर्दा करते हुए कहते हैं - गाथा: जं बद्धमिदिएहिं, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ।।४।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : अप्रशस्तैरिन्द्रियैः चतुर्भिः कषायै: रागेण वा द्वेषेण वा यद् (अशुभं कर्मम्) बद्धम् तद् निन्दामि तत् च गर्हे ।।४।। गाथार्थ : अप्रशस्त भावों में प्रवर्तित पाँच इन्द्रियों द्वारा, क्रोधादि चार कषायों द्वारा (एवं उपलक्षण से मनोयोग, वचन योग तथा काय योग - ऐसे तीन योग द्वारा) राग से अथवा द्वेष से जो कोई अशुभ कर्म बांधा हो, उसकी मैं (आत्म साक्षी से) निन्दा करता हूँ एवं (गुरु साक्षी से) गर्दा करता हूँ।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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