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________________ वंदित्तु सूत्र यह कर्मबंध ज्ञान स्वरूपी आत्मा के ऊपर एक आवरण उत्पन्न करता है, जिसके कारण अनंत ज्ञानवती आत्मा भी अज्ञान के अंधेरे में लड़खड़ा कर इधरउधर सर्वत्र दु:ख का भागी बनती है। श्रावक अपनी ऐसी स्थिति से अवगत होता है। इसलिए वह अत्यंत सजग बनकर इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने की कोशिश करता है। फिर भी अनादि काल से अति अभ्यस्त बने प्रमाद और रागादि के कुसंस्कार निमित्त प्राप्त होते ही उसके संकल्प को डगमगा देते हैं। उस का मन निर्बल एवं निःसत्त्व बन जाता है। वह भूल जाता है कि 'मैं श्रावक हूँ, मैंने व्रत नियमों को स्वीकार किया है, इसलिए मुझे ऐसी अनुचित प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए।' परिणाम यह आता है कि जिस तरह रागादि की वृद्धि हो उसी तरह इन्द्रियाँ प्रवर्तने लगती है। फिर तो बहकी हुई इन्द्रियाँ कभी उसको स्त्री, पुरुष आदि के रूप में पागल बनाती हैं तो कभी संगीत के सूरों में भान भुलाती हैं। कभी अपेय का पान करवाती हैं तो कभी अभक्ष्य का भक्षण करवाती हैं। कभी स्त्री के मुलायम स्पर्श से उसके होश हवास दुरुस्त हो जाते हैं तो कभी सुगंध उसके चित्त को विक्षिप्त कर देती है। इस तरह सम्यग्ज्ञान के मार्ग से विचलित होकर घ्राणेन्द्रिय देव-गुरु की भक्ति के लिए अन्न, | भौतिक आनन्द के लिए अत्तर, फल, औषध वगैरह योग्य हैं कि नहीं | सेन्ट, फूल, साबुन, क्रीम, पाउडर उनकी परीक्षा के लिए सूंघना।। वगैरह सूंघना, सुगंध का राग एवं दुर्गन्ध का द्वेष करना। चक्षुरिन्द्रिय आत्म कल्याण के लिए अनंत गुणों | मोहाधीन बनाये उस रीति से स्त्री आंख के निधानभूत प्रभु के तथा गुणवान | के अंगोपांग आदि देखना, मोह बढ़े आत्माओं के दर्शन करना, सत्ग्रन्थ | ऐसा मिथ्याश्रुत पढ़ना, नाटकका वाचन करना, जीव दया के हेतु | पिक्चर देखना, कुतूहलता से दुनिया से जयणापूर्वक वर्तन करना। भर के कहलाते सौन्दर्य देखना, जरूरत बिना विंडो-शॉपिंग करना। श्रोत्रेन्द्रिय जिनवाणी का श्रवण करना, स्व | संगीत के सुर, विकथाएँ, निन्दा, दोषों का दर्शन कराने वाले गुरु | चाड़ी-चुगली सुनना, फटाके भगवंतों की तथा कल्याण मित्र की फोड़ना, जोर-शोर से वाजिंत्रों को हितशिक्षा स्वस्थ चित्त से सुनना। | बजाना।। इन्द्रियों का किसी भी विषय के साथ संयोग हो तब राग-द्वेष न होने देना, उसमें मध्यस्थ रहना, इसे प्रशस्त व्यापार कहते हैं। नाक कान
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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