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परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा-३
अब मुझे इस पाप की परंपरा को रोकना हैं । इसलिए आज से मुझे ऐसा संकल्प करना है कि जिससे पर पदार्थों की ओर जो अंधी दौड़ चालू है उस पर अंकुश लगे। पापमय आरंभ छूट जाए और ऐसा न हो तो कम से कम यह मर्यादित तो बने एवं निष्पाप जैसे आरंभादि के कार्य भी यतना प्रधान बनें । मन से सर्व पदार्थों की ममता न छूटे तो भी बाहर से तो उनका त्याग करने का प्रयत्न करूँ। __ अगर ऐसा कुछ भी न कर सकूँ तो मेरी ये प्रतिक्रमण की क्रिया, पाप से लौटने के मेरे उद्देश्य को कैसे सफल बना सकेगी ? हे प्रभु! आज आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे संकल्प को साकार कर सकूँ, एवं पुनः पुनः परिग्रह एवं पापमय आरंभ की वृत्ति प्रवृत्ति के अधीन न बनूँ, वैसा सत्त्व मुझे आपके प्रभाव से प्राप्त हो जिससे मैं इन पापों से उभर सकूँ।' चित्तवृत्ति का संस्करण : __ इतना खास ध्यान में रखना है कि 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ इतना बोलने मात्र से प्रतिक्रमण नहीं हो जाता, परंतु जो पाप हुआ हो, उस पाप से वापस लौटने स्वरूप प्रतिक्रमण होना जरूरी हैं। वैसा प्रतिक्रमण करने के लिए हृदय का परिवर्तन
अति आवश्यक हैं। हृदय का परिवर्तन हो तो ही मन शुभ भाव में स्थिर हो सकता हैं एवं भविष्य में ऐसे पाप हो ही नहीं इसके लिए सावधान बन सकता हैं। अतः चित्तवृत्ति का आमूल परिवर्तन करके वास्तविक प्रतिक्रमण करने के लिए साधक को निम्न भावनाओं से हृदय को भावित बनाना चाहिए - • जड़ बाह्य पदार्थ मुझे सुख नहीं दे सकते क्योंकि वे जड है, और मैं
चेतनवंत हूँ। • यदि ये मुझे सुख दे ही नहीं सकतें तो मुझे क्यों इनके प्रति ममता रखकर इनका संग्रह करना चाहिए ? कड़ी मेहनत करके इकट्ठे किए हुए ये भौतिक पदार्थ अनित्य हैं इसलिए इनकी देखभाल में मैं कितनी भी मेहनत करूँ तो भी ये सदा के लिए नही रहेंगे। • खुद ही अशरण दशा में रहनेवाले स्वजन मेरी किस तरीके से रक्षा कर
सकेंगे?