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वंदित्तु सूत्र
अ = अनुमोदन - परिग्रह एवं सावद्य आरंभ की प्रवृत्ति करने वाले की अनुमोदना करना, जो करता है अच्छा करता है ऐसा हर्ष जताना, उसके कार्य को समर्थन देना, उनकी प्रशंसा करना, वह अनुमोदन है।
परिग्रह एवं सावद्य आरंभ की प्रवृत्ति करने से, करवाने से तथा उसका अनुमोदन करने से जो पाप लगा हो, उन सबका प्रतिक्रमण करना हैं।
पडिक्कमे देसि सव्वं - दिनभर में लगे सर्व (अतिचारों) का प्रतिक्रमण करता हूँ। _ 'परिग्रह और अनेक प्रकार की सावध प्रवृत्तियाँ करने से, करवाने से या उनकी अनुमोदना करने से मुझे दिनभर में जो कोई दोष लगा हो उन सबका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।'
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता हैं कि - ___ 'मैं अनंत सुखों का स्वामी हूँ। अनंत ज्ञानादि गुण मेरी संपत्ति हैं । परंतु...मोहाधीनता के कारण मैं यह बात भूल गया हूँ एवं जो मेरा नहीं है, मुझे वास्तविक सुख देनेवाला नहीं है, उन बाह्य-अभ्यंतर परिग्रहों में मैं फँस गया हूँ। इन कारणों से पाप युक्त अनेक आरंभ, समारंभ मैंने अपनाए हैं। मेरे काल्पनिक सुख एवं स्वार्थ के लिए मैंने अनेक जीवों को दुःखी किया हैं। मैंने यह गलत किया है। इससे मैंने मेरी आत्मा का अहित किया है... 4. अनुमोदना के तीन प्रकार हैं -
(१) अनिषेध अनुमोदना (२) उपभोग अनुमोदना (३) संवास अनुमोदना (१) स्वयं अधिकारी होते हुए भी निश्रा में रहे हुए जीवों को यदि कोई पाप कार्य करने का निषेध न करे और मौन का सेवन करे तो 'अनिषिद्धमनुमतम्' इस न्याय से अनुमोदना गिनी जाती हैं। वह अनिषेध अनुमोदना है। (२) निषेध करने पर भी कुटुम्ब का कोई सदस्य हिंसादि पाप करके ही पैसे कमाता हो और उसी पैसों का यदि श्रावक उपयोग करे, तो उपभोग द्वारा उसकी जो पाप प्रवृत्ति की अनुमोदना है, वह उपभोग अनुमोदना कहलाती है । (३) पाप का निषेध भी किया और पाप की कमाई का उपभोग भी नहीं किया, फिर भी अगर श्रावक पाप करनेवाले के साथ रहता हो तो जैसे चोरों की टोली में रहा साहुकार भी चोर कहलाता है, वैसे ही पाप करने वाले के साथ रहने से भी वह पाप का साथ देने वाला ही माना जाता हैं, वह संवास अनुमोदना कहलाती है।