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परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा-३
कारावणे अ करणे - (दो प्रकार के परिग्रह एवं सावद्य आरंभ की प्रवृत्तियाँ) करवाने में, करने में एवं उनके अनुमोदन में (यहाँ अनुमोदन में ऐसा अर्थ कारावणे एवं करणे के बीच के 'अ' शब्द से किया है)।
करणे - यतना रखे बिना, रागादि भावों के पोषक अनेक प्रकार के परिग्रह एकत्रित करना तथा जिनसे हिंसादि का उद्भव हो ऐसी अनेक पाप प्रवृत्तियाँ स्वयं करना वह करण है।
कारावणे - परिग्रह एवं सावध आरंभ की प्रवृत्ति के लिए अन्य को प्रेरणा देना, समर्थन करना, 'यह ठीक है, इसलिए करो' ऐसा कहना अथवा पाप प्रवृत्ति के लिए अनेक प्रकार की सलाह-मशविरा देना वह करावण है।
3. श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित वन्दारूवृत्ति (श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति) में तथा श्री रत्नशेखरसूरि
कृत अर्थदीपिका में तीसरी गाथा की टीका में बताया है कि 'कारावणे' एवं 'करणे' के बीच रहा 'अ' शब्द का अर्थ अनुमति करना - 'चशब्दात् क्वचिदनुमतावपि' कहीं अनुमति में भी अर्थात श्रावक ने जिस पाप की अनुमोदना का पच्चक्खाण किया है, उसमें भी कोई अतिचार लगा हो तो उसका प्रतिक्रमण करना है। यद्यपि यहाँ प्रश्न उठता है कि श्रावक का किसी भी विषय में त्रिविध त्रिविध पच्चक्खान तो होता नहीं, तो अनुमोदना में अतिचार का प्रश्न कहाँ से आया ? यह बात स्पष्ट करते हुए योगशास्त्र की टीका में बताया है कि -वैसे तो श्रावक अनुमोदन न करने का पच्चक्खाण ले ही नहीं सकता । परन्तु कभी संयम स्वीकारने की भावनावाला कोई पुत्रादि के पालन के लिए या प्रतिमा स्वीकार कर घर में रहता हो तो वह कभी स्वयम्भूरमण समुद्र के मांस-मच्छी का नियम त्रिविध-त्रिविध से भी ले सकता है । इह यो हिंसादिभ्यो विरतिं प्रतिपद्यते, स द्विविधां कृतकारितभेदां त्रिविधेन मनसा वचसा कायेन चेति। एवं च भावना - स्थूलहिंसां न करोत्यात्मना न कारयत्यन्येन मनसा वचसा कायेन चेति । अस्य चानुमतिरप्रतिषिध्या, अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात् तैहिंसादिकरणे च तस्यानुमतिप्राप्ते: । अन्यथा परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रव्रजिताप्रव्रजितयोरभेदापत्तेः । ननु भगवत्यादावागमे त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तमगारिणः, तच्च श्रुतोक्तत्वादनवद्यमेव तत्कस्मान्नोच्यते ? उच्यते-तस्य विशेषविषयत्वात्। तथाहि यः किल प्रविव्रजिषुरेव प्रतिमाः प्रतिपद्यते पुत्रादिसन्ततिपालनाय यो वा विशेष स्वयंभूरमणादिगतं मत्स्यादिमांसं स्थूलहिंसादिकं वा क्वचिदवस्थाविशेषे प्रत्याख्याति स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति । इत्यल्पविषयत्वान्नोच्यते। बाहुल्येन तु द्विविधं त्रिविधेनेति।