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वंदित्तु सूत्र
• संग्रहवृत्ति से अथवा संग्रह की प्रवृत्ति से लोकप्रिय नहीं बना जाता परन्तु उदारता आदि गुणों के कारण सज्जन पुरुष लोक में प्रिय बनते हैं। • निष्प्रयोजन महारंभ की एवं महापरिग्रह की प्रवृत्तियाँ मम्मण सेठ की तरह नरक का कारण बनती हैं।
अनुकूलता का राग या प्रतिकूलता का द्वेष एवं सुखशीलता के कारण जीव अनेक सुख सामग्रियों को इकट्ठा करता हैं, जो अनेक अनर्थों का कारण बनता हैं।
• धन्य हैं वे आनंद एवं कामदेव जैसे श्रावक, जिन्होंने परमात्मा की एक ही देशना में परिग्रह नामक बंधन की अनर्थकारिता सुनकर उसी क्षण 'मेरे पास जितना है उससे अणुमात्र भी वृद्धि नहीं करूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा की । इस तरह से भोगोपभोग में भी नियंत्रण करके मात्र संवास अनुमोदना रहे वैसी भूमिका तक वे पहुँच सके।
• धन्य हैं धन्ना, शालिभद्र, मेघकुमार, गजसुकुमाल, अभयकुमार आदि महान श्रेष्ठिगण एवं राजकुमारों को जिन्होंने धन-संपत्ति, राजपाट छोड़कर सर्वसंग का त्याग किया।
परिग्रह के पाप से बचने के लिए श्रावक, जैसे पदार्थों की अनित्यता आदि का विचार करता है वैसे सावद्य प्रवृत्तियों से बचने के लिए 'आत्मवत् सर्वभूतेषु'" की भावना से रंजित होकर सोचता है कि - 'प्रत्येक जीव मेरे समान ही है । जैसे सुख मुझे प्रिय है एवं दुःख अप्रिय है, वैसे ही उन सबको भी सुख प्रिय है एवं दुःख अप्रिय हैं। इसलिए, मैं किसी के सुख को छीन न लूँ या कोई भी जीव मुझ से पीड़ित न हो। मैं किसी के दुःख में या मृत्यु में निमित्त न बनूँ इसलिए, मुझे खूब सावधान रहना चाहिए ।'
5 धण - संचओ अ विउलो, आरंभ परिग्गहो अ वित्थिण्णो । नेइ अवस्सं मणस्सुं, नरगं वा तिरिक्खजोणिं वा ।।
6 आत्मवत् सर्वभूतेषु, सुख-दुःखे प्रियाप्रिये ।
चिन्तन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥२०॥
- प्रबोध टीका
- योगशास्त्र