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वंदित्तु सूत्र
१. स्वरूप हिंसा :
'जीव वधे ते स्वरूप
जिस प्रवृत्ति में उपरी तौर से जीवों की प्राणनाशरूप हिंसा दिखाई देती हो, परंतु जिसमें जीवों की हिंसा करने का भाव न हो, बल्कि जीवों को बचाने का भाव ज्वलंत हो, प्रवृत्ति का लक्ष्य मात्र आत्म कल्याण या मोक्ष पाना हो, ऐसी शुभ भाव की वृद्धि के लिए भगवान की आज्ञा अनुसार की जानेवाली प्रवृत्ति में जो अनिवार्य हिंसा हो जाती है, उस हिंसा को स्वरूप हिंसा' कहते हैं। ऐसी हिंसा की प्रवृत्ति मात्र दिखने में हिंसा जैसी होती है परन्तु वास्तव में हिंसा नहीं होती।
मोक्ष के उद्देश्य से, जिनाज्ञानुसार, यथाशक्ति जयणापूर्वक शुभ प्रवृत्ति करने वाले साधक का मन तो छ: काय की जीवों की रक्षा करने का ही होता है। छ: जीव निकाय की रक्षा संयम जीवन के बिना शक्य नहीं है एवं संयम जीवन का सामर्थ्य वीतराग की भक्ति बिना प्राप्त नहीं होता। इसलिए ही वैराग्यादि शुभ भावों की वृद्धि के लिए साधक अपनी भूमिका अनुसार देव भक्ति, गुरु भक्ति एवं साधर्मिक भक्ति आदि कार्य करता हैं। ये कार्य करते हुए अपने भावों की वृद्धि के लिए वह जो कुछ करता हैं, उसमें जयणा का भाव अर्थात् जीव को बचाने का भाव जाग्रत रहता हैं, सतत उसके लिए प्रयत्न भी होता हैं। ऐसी प्रवृत्ति से लेश मात्र अशुभ कर्मबन्ध नहीं होता एवं बंध हो तो मात्र पुण्य कर्म का ही बंध होता हैं।
यह बात भी खास ख्याल में रखनी है कि, संसारी या संयमी कोई भी जीव जब तक शरीर के साथ जुड़ा हुआ हैं एवं कायादि योगों का व्यापार जहाँ तक चालू हैं, तब तक प्रवृत्ति द्वारा हिंसा तो होगी ही। इसलिए तेरहवें गुणस्थानक तक ये हिंसा तो चालू रहती ही हैं। योग निरोध कर साधक जब चौदहवें गुणस्थानक को प्राप्त करता है । तब कायादि का व्यापार सर्वथा बंध होने के कारण वह सर्वथा हिंसा से मुक्त होंगा । इसके पहले साधक कभी भी हिंसा से नहीं बच सकता, क्योंकि उसकी कायादि से वायुकायादि जीवों की विराधना तो सतत चालू ही रहती है।
इस कारण ही हिंसा को बातें सुनकर, हिंसा से डरकर, किसी भी साधक को कभी अपनी भूमिका के अनुसार आत्मोन्नति में उपकारक जिनपूजा आदि शुभ अनुष्ठानों को छोड़ देने की ज़रूरत नहीं है, परंतु शुभ प्रवृत्तियों को त्यागने से पहले हिंसा एवं अहिंसा