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परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा-३
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स्वयं की भूमिका के मुताबिक शास्त्र सापेक्षता से की हुई जिन पूजा जैसी प्रवृत्तियाँ शुभ भाव की वृद्धि का मुख्य निमित्त होती हैं। ऐसी प्रवृत्तियों से श्रावक सर्व हिंसा से रहित सर्व विरति का पालन करने का सत्त्व पाकर शीघ्र ही संसार के सभी आरंभ-समारंभ से मुक्त हो सकता है। अत: ऐसी प्रवृत्तियाँ स्वरूप से सावद्य होने पर भी प्रकृत्ति (अनुबंध) से निरवद्य होती हैं । इसलिए उन्हें सावध आरंभ नहीं कहते, परंतु निरवद्य आरंभ कहते हैं। निरवद्य प्रवृत्ति का प्रतिक्रमण करने की कोई जरूरत नहीं होती, इसलिए इस गाथा में उसका प्रतिक्रमण नहीं किया गया है, परंतु दोषयुक्त सावध प्रवृत्ति का ही यहाँ प्रतिक्रमण किया गया हैं, क्योंकि ऐसी सावद्य आरंभ की प्रवृत्तिओं से ही विशेष कर्मबन्ध होता हैं । निरवद्य आरंभ से कभी भी पाप कर्मों का बंध नहीं होता।
जिज्ञासा : क्या कोई भी आरंभ युक्त प्रवृत्ति जिसमें हिंसादि होती हो वह कर्मबन्ध का कारण नहीं बनती ?
तृप्ति : नहीं, जैन शासन में ऐसा एकांत नहीं कि हिंसा से कर्मबन्ध होता ही हैं। कुछ प्रकार की हिंसा से कर्म बन्ध होता हैं तो कुछ प्रकार की हिंसा कर्तव्य भी बनती हैं। इसलिए उनसे कर्मबन्ध नहीं होता। हिंसा के प्रकार :
इस बात को समझने के लिए सर्वप्रथम जैन शास्त्रों में कितने प्रकार की हिंसा बताई है, यह समझना पड़ेगा और बाद में ही कौनसी प्रवृत्ति करनी एवं कौन सी नहीं करनी, इसका निर्णय किया जा सकता है। जैन शास्त्रों में हिंसा के तीन प्रकार बताए हैं -
१) स्वरूप हिंसा २) हेतु हिंसा ३) अनुबंध हिंसा
इन तीनों प्रकार की हिंसा को समझाते हुए प.पू. महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी म.सा. डेढ़ सौ गाथा के स्तवन में बताते हैं कि - हिंसा हेतु अयतना भावे, जीव वधे ते स्वरूप; आणाभंग मिथ्यामति भावे, ते अनुबंध विरूप. ४-१९