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वंदित्तु सूत्र
धर्म ग्रंथों में ‘आरंभ' शब्द 'सरंभ' एवं 'समारंभ' इन दो शब्दों के साथ दिखाई देता हैं। उनमें हिंसादि पाप करने से पहले उस संबंधी किया गया मानसिक संकल्प संरंभ हैं । इस संकल्प को पूर्ण करने की पूर्व तैयारी समारंभ हैं एवं जिसमें जीवों की हिंसादि होती है वैसी प्रवृत्ति आरंभ हैं । इन तीनों में मुख्य 'आरंभ' हैं । इसलिए उसके ग्रहण से तीनों का ग्रहण हो जाता हैं ।
ये आरंभ दो प्रकार का है : (१) सावद्य एवं (२) निरवद्य 'अवद्य' अर्थात् पाप और सावद्य अर्थात् पाप सहित। सावद्य आरंभ अर्थात् पाप युक्त आरंभ। जिससे आत्मा का अहित हो, रागादि भावों की वृद्धि हो, कुसंस्कार दृढ़ हो, वैसे आरंभ को सावध आरंभ कहते हैं। संसार में ऐसी सावध प्रवृत्तियाँ अनेक प्रकार की होती हैं, जैसे कि धनार्जन के लिए मिलें, कारखाने वगैरह चलाना, हिंसक वाहनों का प्रयोग करना, इन्द्रियों के पोषण के लिए नाटक, सिनेमा देखना, सुरीले संगीत सुनना, जीभ की लालसा का पोषण करने के लिए तरह-तरह के पकवान बनाना, खाना, पीना, घूमना-फिरना, नाचना-कूदना वगैरह अनेक प्रकार की हिंसक प्रवृत्तियाँ निःशूकता से करनी अर्थात् पाप के भय बिना या संकोच बिना करनी, यह सब बहुविध सावध आरंभ हैं।
निरवद्य आरंभ उसे कहते हैं जिसमें बाह्य से हिंसादि हो तो भी उसमें हिंसा करने का भाव न हों। जिस प्रवृत्ति द्वारा मोक्ष तक पहुँचने की भावना हो, जिसके द्वारा आत्मा से रागादि दोषों को टालकर आत्मा को वैराग्यादि गुणाभिमुख करके वीतरागभाव तक पहुँचाने की भावना हों, अनादि कुसंस्कारों को खत्म करके आत्मा को संस्कारित करने की भावना हो, वैसी प्रवृत्ति कदाचित् हिंसामय हो तो भी निरवद्य कहलाती हैं। भावपूर्वक परमात्मा की भक्ति, गुण संपन्न साधर्मिकों का वात्सल्य, तीर्थयात्रा, जिनमंदिरों का निर्माण, पौषधशाला का निर्माण, कारणिक अनुकंपा वगैरह सर्व कार्य द्रव्य से हिंसामय होने पर भी निरवद्य आरंभ कहलाते हैं; क्योंकि इन कार्यों को करते समय जयणा का भाव ज्वलंत होता हैं, हरपल जिनाज्ञा का स्मरण होता है एवं अनिवार्य रूप से जो हिंसा करनी पड़ती हैं, उस को छोड़कर उसमें एक भी जीव की अधिक हिंसा न हो जाए उसकी पूरी सावधानी रखी जाती हैं। 2 बहुविहे का अर्थ टीका में अनेक प्रकार से नि:संकोचपूर्वक ऐसा किया है।