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________________ परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा-३ (१०) रति (११) अरति (१२) भय (१३) शोक (१४) जुगुप्सा; इन छ: सहित नौ नोकषाय । ये चौदह भाव स्वयं ही परिग्रह स्वरूप हैं क्योंकि ये परभाव स्वरूप हैं एवं परभावों का संग्रह करना ही परिग्रह है और ये परभाव ही कर्मों का संग्रह कराकर आत्मा को बांधता है। अभ्यंतर परिग्रह रूप ये तमाम भाव जीव को बाह्य पदार्थों की तरफ आकर्षित करते हैं एवं उनमें सुख है ऐसा भ्रम उत्पन्न करवाते हैं। इस भ्रम के कारण ही जीव बाह्य पदार्थों का संग्रह करता है। इस तरह अंतरंग परिग्रह, बाह्य परिग्रह का हेतु बनता हैं। तत्त्व दृष्टि से देखें तो समझ में आता है कि बाह्य पदार्थ कभी भी जीव को सुख या दुःख नहीं दे सकते, जीव कभी भी उनसे शांति या समाधि नहीं पा सकता एवं उन पदार्थों के संग्रह से जीव निर्भयता से जी भी नहीं सकता। फिर भी तात्त्विक दृष्टि से वस्तु के वास्तविक रूप को नहीं समझने के कारण जगत के जीव मानते हैं कि 'धन-सम्पत्ति वगैरह होगा तो मैं शारीरिक या व्यवहारिक कोई भी तकलीफ से बच सकूँगा, सुख के अनेक साधनों को पाकर आनन्द पा सकूँगा और जैसे-जैसे धन-सम्पत्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे दुनिया में मानप्रतिष्ठा पाकर मैं ऊँचे ओहदे पर पहुँच सकूँगा। पुत्र-परिवार-पैसा होगा तो भविष्य में भी मेरी सर्व सुविधाएँ सुरक्षित रहेंगी' ऐसा मानकर धन, धान्य, दास, दासी आदि अनेक वस्तुओं का संग्रह करता है एवं इन वस्तुओं के संग्रह के लिए ही जीव हिंसा, झूठ, चोरी आदि अनेक पाप करके नरकादि दुर्गति का भाजन बनता हैं। इसलिए ही ऐसा कहा जाता हैं कि सर्व पापों तथा दोषों का मूल बाह्य एवं अभ्यंतर परिग्रह हैं। सावज्जे बहुविहे अ आरम्भे - पापमय बहुत प्रकार के आरंभ विषयक । 'सावद्य' शब्द का अर्थ है पापयुक्त प्रवृत्ति अथवा निंदनीय प्रवृत्ति; एवं 'आरंभ' शब्द का सामान्य अर्थ है कार्य की शुरुआत, परंतु उसका शास्त्रीय अर्थ होता है कोई भी हिंसक प्रवृत्ति'। 1. सावद्य-शब्द की विशेष समझ के लिए 'सूत्र संवेदना भाग-१' 'करेमि भंते' सूत्र देखिए। 2. संरम्भः प्राणिवधादिसङ्कल्पः, समारम्भः परितापनादिः, आरम्भः प्राणिप्राणापहारः, तथा चोक्तम्-संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारम्भो। आरंभो उद्दवओ सव्यनयाणं विसुद्धाणं।।२।। सावचे सपापे सहावद्येन पापेन य: स सावद्य: - वन्दारुवृत्ति
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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