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________________ ४४ वंदित्तु सूत्र अवतरणिका : सर्व व्रतों के सामान्य अतिचार की निन्दा करके अब उन दोषों की उत्पत्ति का जो मूल कारण हैं उसका प्रतिक्रमण करते हुए बताते हैं - गाथा : दुविहे परिग्गहम्मी, सावज्जे बहुविहे अ आरंभे। कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।३।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : द्विविधे परिग्रहे च सावद्ये बहुविधे आरम्भे। करणे कारणे च दैवसिकं सर्वम् प्रतिक्रामामि ।।३।। गाथार्थ : दो प्रकार के परिग्रह और पाप युक्त अनेक प्रकार के आरंभ करने में, करवाने में एवं ('अ' शब्द से) उनकी अनुमोदना करने में दिनभर में लगे हुए सर्व अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशेषार्थ : दुविहे परिग्गहम्मी - दो प्रकार के परिग्रह विषयक। ममत्व से या मूर्छा से किसी भी वस्तु को ग्रहण करना या उसका संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। यह परिग्रह दो प्रकार का है : १. बाह्य परिग्रह एवं २. अभ्यंतर परिग्रह। उसमें बाह्य तरीके से जिसका संग्रह हो सके वैसे १. धन, २. धान्य, ३. क्षेत्र, ४. वास्तु, ५. चांदी, ६. सोना, ७. कांसा वगैरह अन्य धातु एवं उनके उपलक्षण से घर की सामग्री, ८. द्विपद एवं ९. चतुष्पद : ऐसे नौ प्रकार की बाह्य वस्तुओं का ग्रहण करना या उनका संग्रह करना, बाह्य परिग्रह है। जबकि बाह्य दृष्टि से दिखाई न दें ऐसे मिथ्यात्व आदि अंतरंग भाव अभ्यंतर परिग्रह है। उसके चौदह प्रकार हैं : (१) मिथ्यात्व (२) क्रोध (३) मान (४) माया (५) लोभ; ये चार कषाय; (६) पुरुष वेद (७) स्त्री वेद एवं (८) नपुंसक वेद; ऐसे तीन वेद एवं (९) हास्य
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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