________________
सर्व अतिचारों का प्रतिक्रमण गाथा-२
इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि -
'पंचाचार का सर्वथा पालन करके ज्ञानादि गुणों से समृद्ध होने की श्रमण भगवंतों जैसी तो मेरी शक्ति नहीं है, फिर भी कुछ-कुछ आचारों का पालन करके मैं अपने ज्ञानादि गुणों की आंशिक वृद्धि तो कर ही सकता था; पर निर्भागी ऐसे मैंने प्रमादादि दोषों के अधीन होकर, पंचाचार को छोड़कर, अनाचार का ही सेवन किया। ज्ञानाचार में स्वाध्याय करने के बदले अखबार पढ़ने में ही मैंने मेरी सुबह बिताई। दर्शनाचार के पालन में प्रभु दर्शन द्वारा स्वयं को निर्मल बनाने के बदले टी.वी., फिल्म के दृश्यों को देखकर आत्मा के ऊपर कुसंस्कार एकत्रित किये। चारित्राचार के पालन में योग्य मुद्रा एवं आसनपूर्वक चैत्यवंदनादि करके आत्मा को पुष्ट करने के बदले मैंने व्यायामशाला एवं अखाड़े में जाकर शरीर को पुष्ट करने में श्रम किया । शक्ति होते हुए भी तपाचार में तप, त्याग करने के बदले मैंने खानेपीने में ही जिन्दगी बरबाद की। वीर्याचार में शुभ कार्यों के विषय में मेरी वीर्य शक्ति का उपयोग नहीं करके मैंने सांसारिक पापकार्यों में ही शक्ति का उपयोग किया हैं।
हे नाथ ! आप जैसे देव और सद्गुरु भगवंत मिलने पर भी मैं पंचाचार का पालन करने में कटिबद्ध नहीं बना, कभी पालन किया तो शास्त्र मर्यादा में रहकर भावपूर्वक नहीं किया। इन कारणों से मैंने पंचाचार में बहुत दोष लगाए हैं। इन दोषों को स्मृतिपटल पर लाकर, हे नाथ ! मैं उनकी निन्दा, गर्दा करता हूँ, एवं पुन: ऐसा न हो उसके लिये सावधान बनता हूँ।'