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वंदित्तु सूत्र
चारित्र याने अनेक भवों में एकत्रित किए हुए कर्मों के संचय को खाली करने की प्रवृत्ति ँ । कर्मों को ईकट्ठा करना उसे 'चय' कहते हैं एवं इस संचय को रिक्त करे अर्थात् खाली करे उसे 'रिक्त' कहते हैं । चय एवं रिक्त, इन दो शब्दों को जोड़कर चारित्र शब्द बना हैं।
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यह चारित्र दो प्रकार का होता है : सर्वचारित्र और देशचारित्र । सर्वचारित्र में हेय का सर्वथा त्याग होता है एवं उपादेय का सर्वथा स्वीकार होता है, जबकि देशचारित्र में शक्ति अनुसार हेय का आंशिक त्याग एवं उपादेय का आंशिक स्वीकार होता है । सर्वचारित्र पाँच महाव्रत स्वरूप है, एवं देशचारित्र सम्यक्त्व मूलक बारह व्रत स्वरूप है।
इन दोनों प्रकार के चारित्र के पालन के लिए शास्त्रों में पाँच समिति एवं तीन गुप्त रूप आठ आचार ( चारित्राचार ) बताए गए हैं। इन आठ आचारों को शास्त्रकारों ने 'अष्ट प्रवचन माता' स्वरूप बताया हैं । यह माता चारित्र रूपी बालक को जन्म देती हैं, उसका पालन पोषण करती हैं एवं उसकी वृद्धि भी करती हैं । इसलिए चारित्र के यह आठ आचार चारित्र भाव के सर्जक, शोधक एवं वर्धक माने गए हैं।
इस प्रकार पाँच महाव्रत एवं सम्यक्त्व मूलक बारह व्रत चारित्र स्वरूप हैं एवं पाँच समिति और तीन गुप्ति ये चारित्राचार स्वरूप हैं। इस सूत्र में आगे जिनका वर्णन किया है, वे वध, बंध आदि ८५ अतिचार चारित्र के अतिचार हैं, जब कि समिति-गुप्ति की अशुद्धियाँ चारित्राचार के अतिचार हैं।
चारित्र के अतिचार चारित्र को मलिन करते हैं, जब कि चारित्राचार के अतिचार चारित्राचार को मलिन करके परंपरा से चारित्र को मलिन करते हैं । इस तरह अपेक्षा से दोनों के अतिचार भी अलग हैं एवं दोनों के कार्य भी अलग हैं।
दूसरी अपेक्षा से सोचें तो चारित्र आत्मा का गुण है और उसकी शुद्धि के लिए किया गया बाह्य व्यवहार या क्रिया चारित्राचार है। इस चारित्राचार को भी कारण में कार्य का उपचार करके चारित्र कह सकते हैं एवं उस अपेक्षा से सोचें तो चारित्र एवं चारित्राचार एक ही हैं ।
3. चय ते संचय कर्मनो, रित्त करे वली जेह
- नवपद की पूजा
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