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सर्व अतिचारों का प्रतिक्रमण गाथा-२
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विनम्र भाव से, पश्चात्ताप पूर्ण हृदय से मान, माया आदि भावों को एक तरफ रख कर, निवेदन करना गर्हा हैं।
गर्दा करता हुआ साधक गुरु भगवंत से कहता हैं, ‘भगवंत ! मैंने आपके वचन की उपेक्षा की हैं। निर्बल निमित्तों से बचने के लिए ज़रूरी सत्त्व और पराक्रम का सदुपयोग करने के बजाय उन निमित्तों का भोग बन कर मैंने स्वीकार किए हुए व्रतों को दूषित किया हैं। मैं समझता हूँ कि मैंने ये अनुचित किया है। भगवंत ! किए हुए इन अकार्य संबंधी आपको जो भी योग्य लगे वो प्रायश्चित्त मुझे दीजिए। आप मुझे आत्म शुद्धि का मार्ग बताइए जिससे उस मार्ग पर चलकर पुन: मैं स्वयं को पवित्र कर सकूँ और पुन: व्रत के भाव में स्थिर हो सकूँ।'
जिज्ञासा : आत्मसाक्षी से निन्दा एवं गुरु साक्षी से गर्दा करने से क्या फायदा होता है ?
तृप्ति : आत्मसाक्षी से निन्दा करने से पापों के संस्कार शिथिल होते हैं, पापों के प्रति तिरस्कार प्रकट होता है और उसके कारण पापशुद्धि की तीव्र भावना जागृत होती है। पापशुद्धि की भावना से गुरु के पास जाकर मार्गदर्शन पाने का मन होता है। जिनको हमने अपने आध्यात्मिक विकास की जिम्मेदारी सौंपी हो वैसे गुरु भगवंत के पास जाकर अपने पापों की निन्दा करने से गुरु भगवंत को हमारे दोषों का खयाल आता हैं और पुन: पाप सेवन न हो ऐसा मार्गदर्शन उनसे मिलता हैं। भूतकाल में हुए दोषों के लिए किस प्रकार प्रायश्चित्त करना चाहिए, उसकी समझ प्राप्त होती है। समझ के अनुसार प्रयत्न करने से दोष नष्ट होते जाते हैं और गुरु कृपा से आत्मा में एक ऐसा सत्त्व प्रकटता हैं कि, जिससे पुन: पाप वृत्ति उत्पन्न ही नहीं होती। संक्षेप में कहें तो निन्दा का फल गुरु तक पहुंचाना है एवं गर्दा का फल मार्गदर्शन पाना है।
जिज्ञासा : इस गाथा में व्रत एवं चारित्राचार विषयक अतिचारों की निन्दा, गर्दा की। तब प्रश्न होता हैं कि क्या व्रत एवं चारित्राचार अलग हैं या एक ही है? और उनके अतिचार भी अलग हैं या एक है ?
तृप्ति : एक अपेक्षा से सोचें तो १२ व्रत और चारित्राचार भी अलग हैं और उनके अतिचार भी अलग हैं।