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वंदित्तु सूत्र
उपयोग न करना इत्यादि व्रत संबंधी सूक्ष्म अतिचार हैं। सामान्य तौर से तो ये दोष दोषरूप नहीं लगते, तो भी ये व्रत में मलिनता पैदा करके परंपरा से व्रतनाश का कारण बन सकते हैं।
जिन दोषों को सामान्य जन समझ सकते हैं, वे बादर अतिचार कहलाते हैं। ऐसे बादर अतिचारों की बहुत सी बातें ग्रंथकार स्वयं आगे करेंगे। उसके आधार से अन्य भी छोटे-बड़े दोषों को स्वयं सोचना है।
तं निंदे तं च गरिहामि - उनकी = उन सब अतिचारों की मैं निन्दा एवं गर्दा करता हूँ। निन्दा :
निन्दा करता हूँअर्थात् मैं खुद को ही उपालम्भ देता हूँ कि 'अहो ! महापुण्य के उदय से मानव भव मिला है, उसमें भी रत्न चिंतामणि जैसे ये व्रत मिले हैं। इन रत्नों का पालन किया होता तो मैं धन्य बन जाता। परंतु दरिद्रशिरोमणि जैसे मैंने ऐसी प्रवृत्ति द्वारा व्रत रूपी रत्नों को मलिन किए, उनके पालन के बदले उनकी उपेक्षा की, जिस विश्वास से मुझे गुरु भगवंतों ने अरिहंतादि की साक्षी में व्रत दिए थे उस विश्वास का भी मैंने घात किया, उनके हितवचनों की भी मैंने उपेक्षा की, मानसिक निर्बलता के कारण निमित्तों का भोग बन कर मैंने ये अमूल्य रत्न गँवा दिए, अब मेरा क्या होगा ? मैं कहाँ जाऊँगा ?' ऐसे अनेक विचारों से अपने आप को उलाहना देकर स्वयं पर धिक्कार हो, तिरस्कार का परिणाम प्रकट हो, पुनः दोष के आसेवन करने की इच्छा मात्र भी नष्ट हो, अशुभ, दुर्बल संस्कार निर्मूल हों, उस तरह आत्मसाक्षी से पापों का तिरस्कार करना निन्दा हैं। गर्हा : - आत्मसाक्षी से की हुई निन्दा का फल गर्दा है। अपने आप हुए अथवा किए हुए पापों की निन्दा करने से उन पापों के प्रति जुगप्सा पैदा होती है। पाप से छूटने का मार्ग पाने की इच्छा होती है। फल स्वरूप पाप की शुद्धि के लिए सद्गुरु की खोज शुरु होती है। इस तरह आत्मसाक्षी से की गई निन्दा साधक को गुरु भगवंत तक पहुँचाती है। सद्गुरु भगवंत मिलने के बाद विषय, कषाय या प्रमाद के अधीन होकर स्वीकारे हुए व्रतों में जो जो दोष लगे हों, उन दोषों को गुरु भगवंत के पास