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परिग्रह और हिंसा का प्रतिक्रमण गाथा - ३
के परमार्थ को जानना अति आवश्यक है। ऊपरी दृष्टि से जो प्रवृत्ति अहिंसामय दिखाई देती हो वही वास्तव में हिंसा की परंपरा का सर्जन करनेवाली भी हो सकती हैं। तो कभी ऐसा भी होता है कि जो प्रवृत्ति बाहर से हिंसामय दिखाई देती हो वह वास्तव में अहिंसा का उद्भव करनेवाली हो; जैसे कि श्रावक उचित जिनपूजा आदि एवं श्रमण उचित नवकल्पी विहार आदि में बाह्य दृष्टि से पानी, अग्नि, वनस्पति वगैरह जीवों की हिंसा दिखाई देती है, तो भी ये अनुष्ठान रागादि भावों का त्याग कराके साधक को अंततः मोक्ष तक पहुँचा सकते हैं। अत: बाह्य दृष्टि से दिखाई देती हिंसा को बुरा मानकर ऐसी शुभ प्रवृत्तियाँ कभी भी छोड़नी नहीं चाहिए।
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व्यवहार में भी ऐसा देखने को मिलता है कि, छुरी का प्रयोग डॉक्टर एवं डाकू दोनों करते हैं। लेकिन एक को दयालु कहा जाता है एवं एक को हिंसक कहा जाता है; क्योंकि डॉक्टर का भाव बीमार का दुःख दूर करने का है, जब कि डाकू का भाव सामने वाले व्यक्ति को परेशान करने का होता है । बचाने के भाव से छुरी प्रयोग करते हुए कभी बीमार मर भी जाए तो भी डॉक्टर को कोई हत्यारा नहीं कहता, उस को कोई सज़ा नहीं होती; एवं मारने के इरादे से छुरी का प्रयोग करने वा डाकू के हाथ से कोई बच भी जाए तो भी डाकू को हत्यारा कहा जाता है एवं उसे सज़ा भी दी जाती है।
यही बात स्वरूप हिंसा में बराबर लागू पड़ती हैं।
२. हेतु हिंसा :
'हिंसा हेतु अयतना भाव'
जिस प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा दिखाई देती हो या न भी दिखाई देती हो, परंतु हिंसा के कारणभूत प्रमाद, अयतना, अनुपयोग जिसमें प्रवृत्तमान हो, वैसी प्रवृत्ति को हेतु हिंसा कहते हैं। हालांकि ऐसी प्रवृत्ति में प्रत्यक्ष रूप से हिंसा नहीं दिखाइ देती, तो भी हिंसा का कारणभूत प्रमाद उसमें प्रवर्तमान होता हैं । ऐसी प्रवृत्तियों में जीव बचाने का भाव न होने के कारण उनमें हिंसा न होते हुए भी उनसे हिंसाजन्य कर्मबन्ध चालू ही रहता हैं।
अधिकतर संसारी जीव मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श प्राप्त करने रूप प्रमाद में पड़े हुए हैं। ऐसे जीव प्रत्यक्ष रूप से हिंसा नहीं करते तो भी अपने इच्छित