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वंदित्तु सूत्र
अन्य को भी प्रेरणा मिले, परंतु मन की शिथिलता के कारण यदि श्रावक उसका निषेध न करे परंतु उस बात को सुन ले तो वह अतिक्रम रूप दोष है।
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आलू से बने स्वादिष्ट पदार्थ आँखों के सामने आने पर मन ललचा जाए, , कोई कहे या ना कहे परंतु स्वयं उसे खाने की इच्छा हो या उसे पाने के लिए थोड़ा प्रयत्न शुरू भी करे तो वह व्यतिक्रम दोष है, क्योंकि मन, वचन, काया से किसी भी वस्तु के त्याग का नियम स्वीकारने के बाद उस वस्तु संबंधी मन में विचार करने से अथवा उस वस्तु को पाने का थोड़ा प्रयत्न करने से भी व्रत का आंशिक भंग होता है, इसलिए ऐसा विचार भी व्रत संबंधी दोष है।
खाने की इच्छा होने के बाद उस पदार्थ को मंगवाना अथवा वस्तु जहाँ पड़ी हो उस तरफ जाना, उस वस्तु को लेना, थाली में परोसना, खाने के लिए मुख के समीप लाना, वहाँ तक की सभी क्रियाएँ अतिचार रूप दोष हैं, क्योंकि व्रत को स्वीकारने के बाद यहाँ तक की क्रिया से मन, वचन एवं कुछ अंशों में काया से भी व्रत की मर्यादा टूटती हैं।
मुँह तक आई हुई उस वस्तु को नि:शंक रूप से - निःशूकता से 'व्रत भंग होगा तो क्या होगा ?' ऐसा सोचे बिना मुख के समीप लाई हुई उस वस्तु को मुख में डाल कर खाने को शुरू करना यह अनाचार नाम का दोष हैं। इस दोष के सेवन
व्रत का संपूर्ण भंग होता हैं। इसलिए इन दोषों का नाश प्रतिक्रमण की क्रिया से नहीं होता, परंतु गुरु भगवंत के पास विशेष प्रकार से प्रायश्चित्त करने से होता हैं। इसलिए इस सूत्र में मात्र अतिचार तक के दोषों के प्रतिक्रमण की बात की गई हैं।
व्रत के विषय में ऐसे अनेक अतिचार हैं। उन सब का संक्षेप करके सूत्रकार ने सम्यक्त्व के ५ अतिचार, १२ व्रतों के ७५ अतिचार एवं संलेखना व्रत के ५
1. आहाकम्मामंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइक्कम, गाहिए तइ इयरो गलिए।।
- श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र (अर्थ दीपिका) आधाकर्मी आहार के लिए आमंत्रण को मानो स्वीकार कर रहे हों उस तरह सूनने में 'अतिक्रम' दोष लगता है, वैसा आहार वहोरने जाने से 'व्यतिक्रम' दोष लगता हैं, वैसा आहार ग्रहण करने में 'अतिचार' दोष लगता है एवं वैसे आहार का भोग करने से 'अनाचार' दोष लगता हैं ।