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________________ सर्व अतिचारों का प्रतिक्रमण गाथा-२ ३७ व्रत के परिणाम से आत्मा वर्तमान में उपशम सुख एवं भविष्य में सद्गति की परंपरा द्वारा मोक्ष का महासुख भी प्राप्त कर सकती हैं । जबकि व्रत का स्वीकार नहीं करना, व्रत स्वीकारने के बाद उसका पालन नहीं करना या अयोग्य पालन करना अथवा व्रत का भंग हो ऐसे दोषों का सेवन करना, ये सब दु:ख और दुर्गति की परंपरा का सर्जन करते हैं। व्रत तथा व्रतों के अतिचार विषयक ऐसा बोधवाला व्यक्ति, छोटे से छोटे व्रत को स्वीकार करके प्राण जाने पर भी उसका पालन करता है। जैसे वीरासालवी ने व्रत का महत्व समझकर, विशेष शक्ति न होने से एक सामान्य नियम लिया कि 'खेस की गांठ खोलने के बाद ही मैं शराब पीऊँगा'। एक बार रेशमी खेस की बांधी हुई गांठ बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं खुली, जिससे शराब पीने में विलंब होने पर उसकी नसें टूटने लगीं, परंतु उसने नियम नहीं तोड़ा। अंत में उसके प्राण निकल गए। इस प्रकार व्रत पालन के लिए प्राण न्यौछावर करने के कारण वह सद्गति की परंपरा द्वारा शिवगति प्राप्त करेगा। अतिचार का स्वरूप : व्रत का महत्व नहीं समझने वाला श्रावक प्रसंग आने पर व्रत का स्वीकार तो कर लेता है, परंतु अनादि के कुसंस्कारों के कारण जिस प्रकार व्रत का पालन करना चाहिए उस प्रकार से पालन नहीं कर पाता। अशुभ निमित्त मिलते ही अपनी शक्ति, समझ और पराक्रम को छोड़कर विषयों के अधीन होकर, कषायों एवं कुसंस्कारों के वश होकर, शास्त्रकारों द्वारा बाँधी हुई व्रत की मर्यादा का भंग कर देता हैं। व्रत की मर्यादा का यह भंग ही व्रतविषयक अतिचार या दोष कहलाता है। अनेक प्रकार से लगनेवाले इन दोषों को शास्त्रकारों ने चार विभागों में बाँटा है : १. अतिक्रम, २. व्यतिक्रम, ३. अतिचार एवं ४. अनाचार। उदाहारण के तौर पर सोचा जाए तो 'मैं आलू नहीं खाऊँगा' ऐसी प्रतिज्ञा स्वीकारने के बाद आलू से बनी हुई किसी चीज की कोई प्रेरणा करते हुए कहे कि, ‘भाई ! यह चीज खाने जैसी है।' ऐसा सुनकर व्रतधारी श्रावक को चुप नहीं रहना चाहिए, परंतु इस पाप की मुझे प्रतिज्ञा है' ऐसा कहना चाहिए । जिससे अपने व्रत में दृढ़ता आए और
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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