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वंदित्तु सूत्र
अवतरणिका:
प्रथम गाथा में मंगलाचरण वगैरह का निर्देश करके अब व्रत आदि संबंधी सर्व अतिचारों का प्रतिक्रमण करने की इच्छा व्यक्त करते हुए कहते हैं - गाथा :
जो मे वयाइआरो नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। सुहुमो अ बायरो वा तं निंदे तं च गरिहामि ।।२।।
अन्वय सहित संस्कृत छाया :
व्रतातिचार: तथा ज्ञाने दर्शने चारित्रे च
य: मम सूक्ष्म बादर: वा (अतिचार:) तं निन्दामि तं च गहें ।।२।। गाथार्थ :
व्रत के विषय में तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्याचार के विषय में सूक्ष्म या बादर जो कोई अतिचार मुझे लगे हों, उनकी मैं निन्दा, एवं गर्दा करता हूँ। (यहाँ तप एवं वीर्याचार' ऐसा अर्थ चरित्ते के बाद के 'अ' शब्द से किया है।) विशेषार्थ :
जो मे वयाइआरो - व्रत संबंधी मुझे जो अतिचार लगे हों। व्रत का स्वरूप:
चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में अहिंसादि के जो शुभ भाव प्रकट होते हैं, वह अंतरंग व्रत है, एवं ऐसे शुभ भावों को प्रकट करने के लिए गुरुभगवंतों के समक्ष हिंसा नहीं करनी' ऐसा नियम ग्रहण करके, उसके अनुरूप प्रयत्नवाला बाह्य जीवन व्यवहार करना बाह्य व्रत है।
अथवा - “अहिंसा, क्षमा आदि भाव ही मेरा सुखकर स्वरूप है । मेरा स्वभाव है । मेरे इस स्वभाव को प्रकट करने के लिए मैं हिंसा आदि परभाव का त्याग करके अहिंसा आदि को अपनाने का संकल्प करता हूँ।" - इस तरह आत्म भाव की प्राप्ति के लिए किया गया ऐसा संकल्प ही व्रत हैं ।