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मंगलाचरण गाथा-१
विषय, अधिकारी, संबंध एवं प्रयोजन इन चारों का ज़िक्र करते हैं। इनको अनुबंध चतुष्टय कहते हैं। इस सूत्र के प्रारम्भ में भी, ग्रंथकारश्री ने इस गाथा के पूर्वार्ध से पंच परमेष्ठी को नमस्कार करके मंगलाचरण किया हैं और उत्तरार्ध से विषय और अधिकारी का निर्देश किया हैं।
जैसे पूर्व में बताया था वैसे ही ध्यान में रखना चाहिए कि, ग्रन्थकार ने यह मंगलाचरण, प्रतिक्रमण करने के पहले प्रतिक्रमण करने वाले साधक को किस तरह मंगलाचरण करना चाहिए, यह बताने के लिए किया है। उसके द्वारा वंदित्तु' सूत्र का मंगलाचरण भी गौण रूप से हो ही जाता है, यह भी समझ लेना चाहिए। संबंध एवं प्रयोजन ग्रन्थकारश्री ने साक्षात् शब्दों में नहीं कहे हैं तो भी सामर्थ्य से उन्हें जान सकते हैं । इस ग्रंथ का वाच्य-वाचक संबंध है तथा इस सूत्र के माध्यम से व्रतों के दूषणों का बोध प्राप्त करके; निर्विघ्न प्रतिक्रमण कर, व्रतों की शुद्धि करने रूप अनंतर प्रयोजन है एवं क्रम से सम्पूर्ण शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति करने रूप परंपर प्रयोजन है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि,
'विषय कषायों के अधीन बनकर मैंने महामूल्यवान व्रतों को दूषित किया है, उनके पालन में अनेक स्खलनाएँ हुई हैं, स्वीकार किए हुए व्रतों में अनेक प्रकार के अतिचार लगे हैं, जिसके कारण अनेक पापों का बंध हुआ है। इन पापों से वापस लौटने की मेरी इच्छा है एवं उस हेतु ही मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, लेकिन मैं समझता हूँ कि प्रतिक्रमण की यह क्रिया अनेक विघ्नों से भरी है, इसलिए इसमें कोई विघ्न न आए एवं निर्विघ्न रूप से पाप का प्रतिक्रमण कर मैं शुद्ध बन सकूँ इसलिए ही पंच परमेष्ठियों को याद करके उनको वंदन करता हूँ। भावपूर्वक वंदन कर प्रार्थना करता हूँ कि , हे प्रभु ! इन व्रतों के पालन का अगर कोई फल हो तो मुझे भी आपके जैसा अनंत आनंदमय, अनंत सुखमय, शुद्ध स्वरूप प्राप्त हो' और आचार्यादि को प्रणाम करते हुए सोचता है कि, 'आप जिस रीति से शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने का प्रबल प्रयत्न कर रहे हो, वैसा प्रयत्न करने का उत्साह मुझमें भी प्रकट हो।'