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वंदित्तु सूत्र
करते हुए ललित विस्तरा ग्रंथ में कहते हैं कि सर्वविरति की तीव्र लालसापूर्वक जो आंशिक त्याग होता है वही देशविरति" का परिणाम है।
सर्व पाप से मुक्त होने की भावना पूर्वक आंशिक पाप से मुक्त होने के संकल्प को देशविरति कहते हैं। पाप असंख्य प्रकार के होते हैं, इसलिए उनसे हटने, मिटाने रूप व्रत-नियमों के भी असंख्य प्रकार होते हैं। फिर भी उन सबका संक्षेप करके महापुरुषों ने उनका समावेश बारह व्रतों में किया हैं। श्रावक धर्म के अतिचार :
देशविरति रूप श्रावक धर्म को मलिन करे, उसकी मर्यादा भूलाए ऐसे आचरण को श्रावक धर्म का अतिचार कहते हैं। बारह व्रत संबंधी मुख्यतया एक सौ चौबीस अतिचार होते हैं। यहां उन अतिचारों का प्रतिक्रमण करने की भावना व्यक्त की है। व्रतों को स्वीकार करने वाला श्रावक जब कि सावधान होता है, स्वीकार किए हुए व्रतों में एक भी दोष न लगे, इसके लिए प्रयत्न करता है तो भी प्रमाद आदि दोषों के कारण कभी चूक जाता है एवं व्रतों को दूषित करे ऐसे आचरण उससे हो जाते हैं। ऐसे आचरण ही व्रत के अतिचार कहलाते हैं। इन अतिचारों'2 से मलिन हुए व्रतों को शुद्ध करने की क्रिया ही प्रतिक्रमण है। इस प्रकार श्रावक इच्छामि पडिक्कमिउं सावगधम्माइआरस्स पद बोलकर श्रावक धर्म के अतिचारों का प्रतिक्रमण करने की अपनी भावना गुरु के समक्ष व्यक्त करता हैं। अनुबंध चतुष्टयः
किसी भी ग्रन्थ का प्रारम्भ करते वक्त ग्रंथकार सर्वप्रथम मंगलाचरण के साथ 11 सर्वविरतिलालसा खलु देशविरतिपरिणामः ललितविस्तरा में पू. आ. श्री हरिभद्रसूरि महाराज . ने बताया है कि अणुव्रताद्युपासकप्रतिमा-गतक्रियासाध्यः साधुधाभिलाषातिशयरूपः आत्मपरिणामः ये ही श्रावक धर्म है।
ललितविस्तरा धम्मदयाणं - पद 12.अतिचार - अति = उल्लाँघ कर, व्रत की मर्यादा को उल्लंघन कर चर = चरना, वर्तना।
व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करके वर्तन करने को अतिचार कहते हैं। 13 विषयश्चाधिकारी च संबन्धः प्रयोजनम्।
विना अनुबन्ध ग्रन्थादौ मङ्गलं नैव शस्यते।। अनुबंध चतुष्टय में कहीं मंगल, विषय, संबंध एवं प्रयोजन का समावेश किया है, तो कहीं उसमें विषय, अधिकारी, संबंध एवं प्रयोजन का समावेश किया हुआ है।