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________________ मंगलाचरण गाथा - १ श्रावक : ३३ 10 श्रावक " उसे कहते हैं जो, श्रा = जिन वचन में श्रद्धा रखता हो अथवा जिनवचनों का श्रवण करता हो व = श्रद्धा एवं श्रवण के कारण विवेक संपन्न हो क = विवेक के कारण मोक्ष के उपाय रूप शुद्ध क्रिया में सतत उद्यमशील हो । श्रावक का धर्म : श्रावक का धर्म मुख्य रूप से सम्यक्त्व मूलक बारह व्रत स्वरूप देशविरति धर्म है। श्रावक ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक मोक्षमार्ग को साधनेवाली जो थोड़ी भी क्रिया करता है, उससे उसे जैसे आत्मिक आनन्द की अनुभूति एवं चित्त की स्वस्थता प्राप्त होती है, वैसे आनन्द एवं चित्त की स्वस्थता उसे भौतिक सुख से प्राप्त नहीं होती । भौतिक सुख में उसे श्रम, विडम्बना एवं मात्र काल्पनिक सुख का दर्शन होता हैं । इसी कारण से वह जहाँ मोक्ष साधक क्रिया सतत करने का अवसर मिलता है वैसी सर्व विरति को हमेशा चाहता है एवं उसकी शीघ्र प्राप्ति के लिए ही सम्यक्त्व मूलक बारह व्रत या उनमें से किसी एक व्रत को स्वीकारता है, जिसे देशविरति धर्म कहते हैं । प.पू. आ. श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज यही बात प्रकट 10. ' श्रुणोति इति श्रावकः' - जो सुनता है वह श्रावक । सम्पन्नदंसणाइ पइदियहं जइजणा सुणेई य । सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिंति ।। दर्शन, ज्ञान एवं देशविरति धर्म से सम्पन्न होकर जो हमेशा उपयोगपूर्वक दत्तचित्त से, गुरुवर्यों श्रीमुख से साधु एवं श्रावक की सामाचारी को सुनता है, उसको श्री तीर्थंकर परमात्मा निश्चय श्रावक कहते हैं । श्रद्धालुतां श्राति जिनेन्द्रशासने धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । कृन्तत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना- दतोऽपि तं श्रावकमाहुरुत्तमाः ।। - • पञ्चाशक श्री जिनेश्वर भगवंत के प्रवचन में श्रद्धा रखता है, सुपात्र में निरंतर धन का वपन करता है एवं सुविहित मुनिराजों की सेवा से पाप कर्मों का नाश करता है, उसे ही उत्तम पुरुष श्रावक कहते हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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