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________________ मंगलाचरण गाथा - १ पंच परमेष्ठी को नमस्कार रूप मंगलाचरण करके, अब उत्तरार्ध द्वारा बुद्धिमान पुरुषों की सूत्र के विषय संबंधी जिज्ञासा संतुष्ट करने के लिए 'श्रावक धर्म के अतिचारों से वापस लौटना' रूप विषय का निर्देश करते हैं । इच्छामि पडिक्कमिउं सावगधम्माइआरस्स अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । ३१ - श्रावक धर्म में लगे इच्छामि - ( मैं ) चाहता हूँ। इस शब्द प्रयोग द्वारा श्रावक भावपूर्वक प्रतिक्रमण करने की अपनी इच्छा गुरु भगवंत समक्ष पेश करता हैं । जैन शासन की एक मर्यादा है कि कोई भी कार्य प्रारंभ करने से पहले अपनी इच्छा गुरु भगवंतों को बताने रूप इच्छाकार सामाचारी' का पालन करना चाहिए । प्रतिक्रमण करने को उत्सुक साधक भी 'इच्छामि' शब्द द्वारा इच्छाकार समाचारी का पालन करता हैं एवं अपनी इच्छा गुरु भगवंत को बताने में आनंद का अनुभव करता हैं। 8. क्रियाशून्यस्य यो भावो, भावशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं दृष्टं, भानुखद्योतयोरिव ।। श्रावक समझता है कि बिना भाव की शुद्ध क्रिया एवं बिना क्रिया का शुद्ध भाव इन दोनों के बीच सूर्य एवं पतंगे जितना अंतर है । क्रिया का दायरा बड़ा हो परंतु अंतर में कोई भाव न हो, तो क्रिया पतंगे के प्रकाश जैसी तुच्छ है एवं शुद्ध भाव हो परंतु क्रिया अति अल्प हो अथवा न भी हो, तो भी उसके अंतर शुद्ध भाव सूर्य के प्रकाश जैसा महान होता हैं। इसीलिए श्रावक मात्र प्रतिक्रमण करने की ही इच्छा नहीं रखता, परंतु भावपूर्वक प्रतिक्रमण करने की इच्छा प्रकट करता है। 7. सामाचारी की विशेष जानकारी के लिए देखिए सूत्र संवेदना भा. १ में सूत्र नं. ३ 'सामाचारी' जैन शास्त्रों का विशिष्ट शब्द प्रयोग है । यह शब्द सम्यक् + आचार शब्दों से निष्पन्न हुआ हैं। साधु जीवन की मर्यादा में अरस-परस के व्यवहार संबंधी जिन मर्यादाओं का पालन होता हैं उन्हें ‘सामाचारी' कहते हैं । इस उपरांत कषाय के स्पर्श बिना चारित्र की पुष्टी के लिए जो प्रवृत्ति की जाती हैं उनको सामाचारी कहते हैं । श्राद्ध प्रतिक्रमण की अर्थदीपिका टीका
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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