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वंदित्तु सूत्र
__ अंतरंग विघ्न आंतरिक प्रतिकूल भावस्वरूप हैं, जैसे कि यह प्रतिक्रमण की क्रिया ही मेरे सुख का कारण है ऐसा न लगे । ऐसा लगे तो भी अंतर में प्रतिक्रमण करने का भाव प्रकट ही न हो । प्रतिक्रमण करने की भावना होते हुए भी संसार की सर्व क्रियाओं से यह क्रिया महान् है ऐसा आदर प्रकट न हो। क्रिया करते समय जैसे वीर्योल्लास से क्रिया करनी चाहिए वैसा वीर्योल्लास ही प्रकट न हो। मन को एकाग्र करने की मेहनत होते हुए भी मन अन्यत्र भटकता हो लेकिन प्रतिक्रमण की क्रिया में स्थिर न होता हो । बाह्य से क्रिया सुंदर हो तो भी उसके द्वारा जो आंतरिक आनन्द का झरना फूटना चाहिए वह फूटता न हो, इसलिए क्रिया जल्दी पूर्ण करने की भावना रहती हो। ये और ऐसे अन्य भी भाव अंतरंग विघ्न हैं, जिनको शास्त्रकार उत्कृष्ट विघ्न कहते हैं।
साधक इस सूत्र के माध्यम से प्रतिक्रमण करना चाहता हैं, लेकिन अगर कोई विघ्न आ जाए तो वह बाहरी तौर से प्रतिक्रमण करके भी प्रतिक्रमण के अनुरूप भावों का संवेदन कर अपनी परिणति बदल नहीं पाता। इसलिए इस सूत्र को
आत्मसात् करने एवं हृदयस्पर्शी बनाने में प्रतिबंधक बने हुए बाह्य एवं अंतरंग विघ्नों का नाश करने के लिए सूत्रकार ने प्रारंभ में मंगलाचरण किया हैं। इस मंगलाचरण से प्रकटा हुआ शुभ भाव सर्व विघ्नों को दूर कर के, साधक को सूत्र से अपेक्षित भावों तक पहुँचाता है और उसके द्वारा आत्मिक शुद्धि भी कराता है। पंच परमेष्ठी को वंदना :
वंदित्तु - वंदन करके।
वंदन का अर्थ है नमस्कार अथवा समर्पण का भाव अथवा मन-वचन एवं काया की एक शुभ प्रवृत्ति । अरिहंतादि गुणवान आत्माओं के दर्शन कर वे महान हैं एवं मैं हीन हूँ,' ऐसा आदर और बहुमान का भाव मानसिक वंदन हैं। ऐसे भावपूर्वक 'वंदामि' या 'नमो' वगैरह शब्दों का उच्चारण वाचिक वंदन हैं एवं दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना कायिक वंदन की क्रिया हैं। यह वंदन की क्रिया भूमिका भेद से अनेक प्रकार की हैं। इसमें परमात्मा के प्रति अहोभाव के
3. वंदन क्रिया की विशेष समझ के लिए ‘सूत्र संवेदना भाग-२' 'अरिहंत चेइआणं' सूत्र देखें।'
तत्र वन्दनम्-अभिवादन-प्रशस्तकायवाङ्मनःप्रवृत्तिरित्यर्थः, -ललितविस्तरा ।