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मंगलाचरण गाथा - १
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प्रतिक्रमण करते समय साधक इन पदों के उच्चारण द्वारा प्रतिक्रमण का मंगलाचरण करता है एवं सूत्रकार इन पदों की रचना द्वारा मंगलाचरण पूर्वक सूत्र का प्रारंभ करते हैं।
प्रतिक्रमण करने के उपरांत सूत्र की रचना करना, सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना, सूत्र का पूर्ण तात्पर्य समझकर, सूत्रानुसार जीवन जीना : ये सब कार्य श्रेयकारी हैं। सर्वत्र कहा जाता है कि ‘श्रेयांसि बहुविघ्नानि" श्रेय कार्य बहुत विघ्नों से भरे हुए होते हैं, क्योंकि अनादिकाल से अश्रेयकारी पाप की वृत्ति एवं प्रवृत्ति द्वारा जीव ने जो सघन पाप पूंज इक्कट्ठे किये हैं, वे श्रेयकार्यों में विघ्न उत्पन्न करते हैं। विघ्नों के प्रकार :
पाप प्रकृति से उदित विघ्न दो प्रकार के हैं - बाह्य एवं अंतरंग । उसमें प्रतिक्रमण करने के लिए प्रतिकूल हों वैसे बाह्य संयोग - बाह्य विघ्न हैं एवं प्रतिक्रमण करने के लिए प्रतिकूल हों वैसे अंतरंग भाव - अंतरंग विघ्न हैं ।
प्रतिक्रमण के लिए बाह्य विघ्न बाह्य प्रतिकूलता रूप हैं। जैसे कि प्रतिक्रमण के लिए अनुकूल हो वैसा भाव बना रहे ऐसा शांत, सुयोग्य स्थान ना मिले, जरूरी उपकरण प्राप्त न हों, समय की अनुकूलता न हो, स्वयं प्रतिक्रमण करना न आता हो तथा करवाने वाला भी न मिले, शरीर की जैसी अनुकूलता चाहिए वैसी प्राप्त न हो, वगैरह ये सब बाह्य विघ्न हैं । शास्त्र में ऐसे विघ्नों को जघन्य अथवा मध्यम विघ्न' कहते हैं ।
1. श्रेयासिं बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।
अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ।।
महापुरुषों के लिए भी श्रेय कार्य सघन विघ्नों वाले होते हैं । अश्रेय कार्य में प्रवृत्ति करनेवालो विघ्नसमूह कहीं चले जाते हैं। - योगशतक गाथा नं. १ की टीका ।
2. धर्म करने में अंतराय पैदा करने वाले परिणाम विघ्न कहलाते हैं। शास्त्रों में विघ्न जघन्य,
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मध्यम एवं उत्कृष्ट ऐसे तीन प्रकार के बताए गए हैं। इसमें ठंडी, गरमी आदि बाह्य प्रतिकूलता के कारण धर्म में रूकावट करने वाला भाव जघन्य विघ्न है, शारीरिक रोग या प्रतिकूलता मध्यम विघ्न है एवं आत्मिक भावों की प्रतिकूलता यानि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म से उत्पन्न हुआ मनोविभ्रम उत्कृष्ट विघ्न कहलाता हैं । इस विषय की विशेष जानकारी (माहिती) योगविंशिका गाथा १ तथा तीसरे षोडषक की ९वीं गाथा में मिल सकती है।
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