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वंदित्तु सूत्र
अवतरणिका :
'वंदित्तु' सूत्र का प्रारंभ करते हुए ग्रंथकार श्री प्रथम गाथा द्वारा मंगलाचरण
करते हैं -
गाथा :
वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ ।
इच्छामि पडिक्कमिउं, सावग - धम्माइआरस्स ||१||
अन्वय सहित संस्कृत छाया :
सर्वसिद्धान् धर्माचार्यान् च सर्वसाधून् च वन्दित्वा । श्रावकधर्मातिचारस्य (रात्) प्रतिक्रमितुम् इच्छामि ||१||
गाथार्थ :
अरिहंत भगवंतों को, सर्वसिद्ध भगवंतों को, धर्माचार्यों को, उपाध्याय भगवंतों को तथा सर्व साधु भगवंतों को वंदन करके, मैं श्रावक धर्म में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ।
विशेषार्थ :
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वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ सर्व सिद्धों को (अरिहंतों को), धर्माचार्यों को, उपाध्यायों को तथा सर्व साधुओं को वंदन करके (यहाँ उपाध्यायों को ऐसा अर्थ धम्मायरिए एवं सव्वसाहू शब्दों के मध्य में जो 'अ' शब्द है उस से किया है ।)
मंगलाचरण किस लिए ?
पूर्वाचार्यों ने इस सूत्र की रचना श्रावक को लक्ष्य में रखकर की हैं। उसके माध्यम से श्रावक को अपने व्रतों में लगे अतिचारों की आलोचना कर शुद्ध बनना हैं। आलोचना द्वारा आत्मशुद्धि करने का कार्य एक शुभ एवं दुष्कर कार्य हैं। इसकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए, इस क्रिया का प्रारंभ करने से पहले श्रावक को मंगलाचरण करना चाहिए । इसी कारण श्रावक इस सूत्र के प्रारंभ में ही पंच परमेष्ठी रूप इष्ट देव-गुरु को नमस्कार करने के रूप में मंगलाचरण करता है और इसके पश्चात् यह बताता है कि, 'मैं श्रावक धर्म के अतिचारों का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ ।