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मूल सूत्र
स्वीकार नहीं किए हुए व्यक्ति दोनों के लिए प्रतिक्रमण किस तरीके से हितकारी हैं, यह बात अड़तालीसवीं गाथा में की गई हैं।
सूत्र के प्रांत भाग में प्रतिक्रमण की क्रिया के हार्द स्वरूप सर्व जीवों के प्रति मैत्री भावना का मंगल निर्देश हैं, जिसके द्वारा सब जीवों के साथ बंधे हुए वैर के अनुबंध को निर्मूल कर देना हैं । अन्तिम गाथा में आलोचना, निन्दा, गर्हा करते हुए अंतिम मंगल रूप चोबीस जिनों की वंदना की गई हैं।
मूल सूत्र :
वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ । इच्छामि पडिक्कमिउं, सावग - धम्माइ आरस्स ।।१।। जो मे वयाइआरो, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ । सुमो अ (व) बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ।।२।।
दुविहे परिग्गहम्मी, सावज्जे बहुवि अ आरंभे । कारावणे अ करणे, पडिक्कमे देसिअं (राइअं ) सव्वं ।।३।।
जं बद्धमिंदिएहिं, चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं । रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ||४||
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आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे, पडिक्कमे देसिअं (राइअं सव्वं ॥ ५ ॥
संका कंख विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्सइआरे पडिक्कमे देसिअं (राइअं ) सव्वं || ६ || छक्काय-समारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा । अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयट्ठा चेव तं निंदे ।।७।। पंचण्हमणुव्वयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देसिअं (राइअं ) सव्वं ।।८।।