________________
परिचय
१९
गाथाओं का क्रम :
इस सूत्र में बताए गए व्रतों का विशुद्ध पालन करना एवं व्रत दूषण से बचना, ये एक अति विकट कार्य है। इस विकट कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए इस सूत्र के प्रारंभ की सर्वप्रथम गाथा में पंच परमेष्ठी को वंदन करने रूप मंगलाचरण किया गया है। एकाग्रचित्त से पंच परमेष्ठि का ध्यान करने से विघ्न दूर होते हैं एवं व्रत पालन की विशिष्ट शक्ति प्रकट होती है।
मोक्ष की प्राप्ति ज्ञानादि गुणों के सम्पूर्ण विकास से होती है। इन ज्ञानादि गुणों की साधना करने एवं ज्ञानादि गुणों में रमणता प्राप्त करने के लिए व्रत पालन आवश्यक है। व्रत विषयक दोषों के नाश के लिए दूसरी गाथा में उनका सामुदायिक प्रतिक्रमण किया गया है। आरंभ एवं परिग्रह सब दोषों के मूल स्वरूप हैं। इसलिए तद्विषयक दोषों का प्रतिक्रमण तीसरी गाथा में किया गया है।
पंचाचार का पालन श्रावक जीवन का परम कर्त्तव्य है । उनमें सर्वप्रथम रहने वाला ज्ञानाचार कितना व्यापक है एवं इन्द्रिय और कषाय की अधीनता से हर पल उनमें कैसे दोष लगते हैं, उनको बताकर उन दोषों की निन्दा चौथी गाथा में की गई है।
उसके बाद दर्शनाचार में बाह्य एवं अंतरंग तरीके से कौन से दोष लगते हैं उनको बताकर, उन दोषों की निन्दा पाँचवीं एवं छठी गाथा में की गई है।
गृहस्थ जीवन में रसोई करना लगभग अनिवार्य है; फिर भी रसोई करते हुए अयतना से जो कोई हिंसादि दोष लगे हों, तो उनका प्रतिक्रमण सातवीं गाथा में किया गया है।
उसके बाद चारित्राचार की विगत बताते हुए आठवीं गाथा से बत्तीसवीं गाथा तक श्रावक जो व्रत अंगीकार करता है, उन बारह व्रतों का एवं उनमें संभवित दोषों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही दोषों से मलिन बनी हुई आत्मा को आलोचना, निन्दा, गर्हा एवं प्रतिक्रमण रूप उपाय द्वारा निर्मल करने का सुन्दर मार्ग भी बताया है।
तत्पश्चात् तपाचार के विषय में श्रमण एवं श्रावक मृत्यु समय समीप आने पर 'समाधि मरण' के लिए जिस संलेखना व्रत का ( अनसन व्रत का ) स्वीकार करते