________________
वंदित्तु सूत्र
दोषों का आसेवन ना हो जाए, इसलिए ज्यादा सावधान बनना है। अगर साधक सावधान न बने तो अनादिकालीन विषय-कषाय के संस्कार एवं सतत मिलते हुए निमित्त, साधक को कब गिरा दें यह कह नहीं सकते। निमित्तों के प्रभाव से बचने एवं मन को मर्यादित बनाने के लिए ही व्रत संबंधी दोषों की विचारणा इस सूत्र में की गई है।
इस सूत्र में मुख्यतया श्रावक के बारह व्रतों एवं उन व्रतों को मलिन बनाए वैसे १२४ अतिचारों का (दोषों का) विस्तृत वर्णन किया गया है । यह वर्णन दोषों के प्रति सजगता विकसित करने के लिए है, परंतु ये तो अतिचार हैं, व्रत भंग नहीं, ऐसा मानकर दोषों के सेवन के लिए नहीं है।
यहाँ इतना खास ध्यान रखना है कि, इस सूत्र में बताए गए अतिचारों का अज्ञान से या कोई विशेष संयोग में सेवन हो गया हो तो ही ये अतिचार रूप बनते हैं, परंतु व्रतपालन में निरपेक्ष बन, जानबुझकर अगर अतिचारों का आसेवन हुआ हो तो वे अतिचार, अतिचार न रहकर अनाचार या व्रत भंग रूप ही बनते हैं एवं उन अतिचारों का प्रतिक्रमण इस सूत्र द्वारा नहीं हो सकता। उनके लिए तो गुरु भगवंत के पास जाकर ही विशेष प्रकार का प्रायश्चित करना जरूरी होता है।
विचार पूर्वक, हृदय के भाव एवं योग्य प्रकार की संवेदनाओं के साथ यदि यह सूत्र बोला जाए तो जरूर दिन, रात्रि, पक्ष, चातुर्मास और वर्ष दरम्यान किए हुए सर्व पाप निर्मूल हो सकते हैं, परंतु भाव बिना मात्र सूत्र बोलने से कोई विशेष फल की प्राप्ति नहीं होती।
इसलिए इस सूत्र के माध्यम से जिन्हें आत्म-शुद्धि करनी हों, उन्हें यह सूत्र बोलने से पूर्व मात्र शुद्ध उच्चारण कैसे करना इतना ही नहीं, परंतु शुद्धोच्चारण के साथ कौन से भाव तक पहुँचना है एवं किस प्रकार की संवेदना की आग को अंतर में प्रकटानी है, उसका भी अभ्यास करना अति अनिवार्य बनता है। वैसा करने से ही वे इस सूत्र का फल प्राप्त कर सकते हैं। जो इस तरीके से सूत्र के मर्म तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं करते वे शायद अल्प पुण्य बंध कर सकते हैं, परंतु आत्म-शुद्धि रूप उच्च फल प्राप्त नहीं कर सकते।