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________________ परिचय श्रावक को पाप से सम्पूर्ण विराम कराए ऐसा सर्वविरति रूप संयम जीवन अति प्रिय होता है। श्रद्धालु श्रावक समझता है कि, 'जब तक मैं सब पापों से नहीं छुटूंगा तब तक मुझे सुख या शांति की प्राप्ति नहीं होगी, ऐसी समझ होते हुए भी जहाँ तक संयम जीवन स्वीकारने का सत्त्व प्रकट न हुआ हो वहाँ तक उस सत्त्व को प्रकट करने के लिए ही श्रावक इस सूत्र में वर्णित 'सम्यक्त्व मूल बारह व्रतों' को अथवा अपनी शक्ति अनुसार न्यूनाधिक व्रतों को स्वीकारता है अर्थात् हिंसादि पापों से बचने के लक्ष्य पूर्वक स्थूल हिंसा नहीं करना, स्थूल झूठ नहीं बोलना आदि व्रतों को स्वीकारता है एवं अन्यों की जयणा (यतना) रखता है। जयणा या यतना का अर्थ है सुदृढ प्रयत्न । इसलिए इस संदर्भ में पाप से बचने की भावना पूर्वक के सुयोग्य प्रयत्न को जयणा कहते हैं । जैसे कि, बड़े जीवों की हिंसा मुझे नहीं करनी ऐसा नियम स्वीकार कर श्रावक जानबुझकर त्रस' जीवों की हिंसा तो नहीं ही करता, परंतु पृथ्वी, पानी आदि स्थावर जीवों की हिंसा भी वह अत्यंत आवश्यकता के बिना नहीं करता एवं आवश्यकता होने पर भी आवश्यकता से अधिक हिंसादि ना हो उसकी खूब सावधानी रखता है। स्थावर जीवों को बचाने के उसके ऐसे प्रयत्न को जयणा कहते हैं । जब श्रावक को अनिवार्य संयोगों में पृथ्वी, पानी आदि की हिंसा करनी पड़ती है, तब भी उसके हृदय में एक चुभन तो रहती ही है और उस पाप से भी छूटने का वह सतत प्रयत्न करता है। ऐसे प्रयत्न के बावजूद अनादि अभ्यस्त विषय-कषाय एवं प्रमादादि दोष उसके व्रतों को मलिन कर देते हैं। इस मलिनता को दूर करने के लिए ही इस सूत्र में आलोचना, निन्दा, गर्दा एवं प्रतिक्रमण जैसे चार उत्तम साधन बताए गए हैं। धर्मबिन्दु, योगशास्त्र, धर्मसंग्रह आदि अनेक ग्रंथों में इन बारह व्रतों का एवं उनको मलिन करने वाले अतिचारों का विस्तृत वर्णन है । यहाँ तो संक्षेप में व्रतों को बताकर सिर्फ व्रत मलिन करने वाले बड़े-बड़े दोषों का वर्णन किया है। स्थूल दोषों के आधार पर साधकों को अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म दोषों का विचार स्वयं करना हैं एवं उनके आधार पर भूतकाल के दोषों की शुद्धि करके भविष्य में इस प्रकार के 1. अपनी मरजी से एक स्थान से दूसरे स्थान जाने की शक्तिवाले जीव याने हलन-चलन कर सकें ऐसे जीवों को त्रस जीव कहते हैं । जैसे कि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीव, इसके अलावा जो जीव हलन-चलन नहीं कर सकते उन्हें स्थावर कहते हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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