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वंदित्तु सूत्र
२. अपनी अपनी भूमिका के अनुसार जो जो कर्तव्य करने योग्य हों वह न करना पाप है। ३. भगवान के बताए हुए तत्त्वों, आदर्शों के प्रति मन में हुई अश्रद्धा पाप है। ४. सर्वज्ञ के वचन से विपरीत प्ररूपणा करना पाप है। इन चार प्रकार के पापों का प्रतिक्रमण करना है । इनका विस्तार से वर्णन इस सूत्र के विशेषार्थ में प्राप्त होगा। प्रतिक्रमण कब करना चाहिए ?
उत्सर्ग मार्ग से, दैवसिक प्रतिक्रमण के लिए सूर्यास्त हो तब ‘पगाम सिज्जाय' या वंदित्तु सूत्र' आए और रात्रि प्रतिक्रमण के लिए प्रातः दस प्रतिलेखना करने के बाद सूर्योदय हो, ऐसी समय मर्यादा का पालन करने का विधान है। __ अपवाद मार्ग से तो दिन के तीसरे प्रहर से लेकर अर्ध रात्रि अर्थात् रात्रि के दो प्रहर पूरे होने तक दैवसिक प्रतिक्रमण एवं रात्रि के तीसरे प्रहर से दिन के दूसरे प्रहर तक रात्रिक प्रतिक्रमण हो सकता है। संक्षिप्त में रात के लगभग १२.३० से दिन के १२.३० बजे तक रात्रि प्रतिक्रमण एवं दिन के १२.३० से रात के १२.३० तक दैवसिक प्रतिक्रमण हो सकता है । यद्यपि आवश्यक चूर्णि में बताया गया है कि रात्रि प्रतिक्रमण ‘बहुपडिपुन्ना पोरिसि' तक कर सकते हैं; परंतु व्यवहार सूत्र में बताया गया है कि पुरिमुड्ड (मध्याह्न) तक रात्रि प्रतिक्रमण किया जा सकता है।
पाक्षिक आदि तीन प्रतिक्रमण तो अनुक्रम से पक्ष के अंत में, चार महीनों के अंत में एवं वर्ष के अंत में करने का विधान है। उसमें पक्खी प्रतिक्रमण हर चौदस को, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण अषाढ़, कार्तिक एवं फाल्गुण महीने की शुक्ल चौदस को एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण औदयिक भाद्र पद शुक्ल चौथ के दिन होता है। प्रतिक्रमण कहाँ करना चाहिए ?
जहाँ प्रतिक्रमण करना हो वह स्थान स्त्री, पशु, नपुंसक आदि के आवागमन और कीड़ी वगैरह जीवों की विशेष उत्पत्ति, उपद्रव से रहित होना चाहिए । वैसे स्थान में श्री गुरु भगवंत के समक्ष प्रतिक्रमण करना चाहिए, क्योंकि गुरु भगवंतों की उपस्थिति आत्मा का उत्साह-वीर्य बढ़ाती है एवं प्रतिक्रमण में होनेवाले प्रमाद