________________
भूमिका
भावना अनुसार जो प्रयत्नशील भी रहते हों, पाप से मुक्त होने के लिए जो दिनभर में हुए पाप को अपनी स्मृति में रखते हों और पाप प्रवृत्ति न हो जाए इसलिए मनवचन-काया पर सतत पहरा रखते हों, नहीं बोलने लायक बोला न जाए, नहीं करने लायक किया न जाए एवं न सोचने लायक सोचा भी न जाए उसके लिए जागृत रहते हों, और अगर ऐसी जागृति के बावजूद जो पाप हो जाए उन पापों की क्षमा माँगकर जिन्हें आत्मा की सुविशुद्ध अवस्था प्राप्त करने की एक लगन लगी हो वे ही प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं। परंतु जो पाप को पाप रूप नहीं स्वीकारते, पाप से शुद्ध होने की जिनकी भावना भी नहीं होती, मात्र ‘सब करते हैं इसलिए हमें भी प्रतिक्रमण करना चाहिए, प्रतिक्रमण करेंगे तो कुछ तो भला होगा, ऐसी लोकसंज्ञा या ओघ संज्ञा वाले जीव वास्तव में प्रतिक्रमण के अधिकारी नहीं होते। फिर भी भाव दया से पवित्र अंत:करण वाले गुरुभगवंत ऐसे जीवों को भी प्रतिक्रमण करने से नहीं रोकते । वे समझते हैं कि अनाग्रही जीव इस तरीके से भी धर्मक्षेत्र में आएँगे तो कभी उनको सत्य समझा सकेंगे और यदि ये जीव प्रज्ञापनीय कक्षा के होंगे, तो वे भी कभी इस विधिमार्ग को समझकर स्वीकारेंगे; इस तरह से भी उनका आत्म कल्याण हो सकता है। इसलिए गुरु भगवंत ऐसे जीवों को भी प्रतिक्रमण करने से नहीं रोकते; परंतु जो विधि मार्ग की अत्यंत उपेक्षा करते हैं, किसी भी तरह करें तो चलता है ऐसा मानते हैं, वे तो प्रतिक्रमण के अधिकारी ही नहीं हैं। इसलिए उनको प्रतिक्रमण न देना वही योग्य' है। प्रतिक्रमण किसका करना?
पडिसिद्धाणं करणे, किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं,
असदहणे अ तहा, विवरीअ - परूवणाए अ ॥४८।। प्रतिक्रमण पापों का करना है और पाप के चार स्थान हैं :
१. भगवान ने जिनका निषेध किया है वैसे हिंसा, झूठ आदि पाप के अठारह स्थान हैं, उनका सेवन करना पाप है। 7. ये त्वपुनर्बन्धकादि भावमप्यस्पृशन्तो विधिबहुमानादिरहिता गतानुगतिकतयैव चैत्यवन्दनाद्यनुष्ठानं कुर्वन्ति ते सर्वथाऽयोग्या एवेति व्यवस्थितम्॥१३॥
- योगविंशिकावृत्तौ