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________________ वंदित्तु सूत्र हुई हो तो उन दोषों के प्रति उनमें जुगुप्सा होती है और सतत पाप से छूटने की भावना होती है; इसलिए व्यवहारनय तो ऐसे अपुनर्बंधक जीवों को भी प्रतिक्रमण के अधिकारी के तौर से स्वीकारता है। अपुनर्बंधक से नीचे की भूमिका के जीवों में मिथ्यात्व का गाढ उदय होता है, इसलिए वे पाप को पाप रूप नहीं समझ सकते। शायद कभी समझ भी जाएं तो भी पाप के कैसे भयंकर परिणामों को सहन करना पड़ेगा, इस बात की उन्हें श्रद्धा नहीं होती। इसलिए उनको पाप से मुक्त होकर आत्मिक सुख पाने की इच्छा भी नहीं होती। जहाँ आत्मिक सुख की इच्छा ही न हो वहाँ पाप से मलिन बनी आत्मा को शुद्ध करने के उपाय स्वरूप प्रतिक्रमण की तो इच्छा ही कहाँ से होगी? हाँ ! कभी पाप के कारण दुःख आता है ऐसा सुनकर, ऐसे जीव दुःख के डर से पाप शुद्धि की इच्छा करते हैं एवं कभी कभी पाप शुद्धि के लिए प्रवृत्ति भी करते हैं फिर भी वे मात्र भौतिक दुःख से छूटने के लिए ही क्रिया करते हैं। इसलिए हकीकत में वे प्रतिक्रमण के अधिकारी नहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि जिन्हें रागादि आत्मिक दुःख से मुक्त होना हो वे ही प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं । यहाँ इतना खास ध्यान में रखना है कि प्रतिक्रमण के अधिकारी ये सब हैं, फिर भी आत्मशुद्धि रूप फल की अपेक्षा से सोचें तो, जिनकी भावशुद्धि विशेष हो, सत्त्व एवं समझ की मात्रा अधिक हो, वे प्रतिक्रमण द्वारा विशेष प्रकार की शुद्धि प्राप्त कर सकते हैं। नीचे की भूमिका वाले भी अगर मन को एकाग्र करके पश्चात्ताप की भावना को तीव्र बनाकर, दृढ सत्त्वपूर्वक प्रतिक्रमण करें, तो दृढ़प्रहारी, अईमुत्ता मुनि आदि की तरह पूर्ण शुद्धि पा सकते हैं। ___ यहाँ यह भी खास ध्यान में रखना है कि जिन्होंने भाव से व्रत, नियम स्वीकारे हैं, परंतु प्रमादादि दोषों के कारण व्रतों की मर्यादा टूट गई हो, वे जीव ही प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं ऐसा नहीं है । वास्तव में व्रत, नियम के भाव तक पहुँचने के लिए जिन्होने द्रव्य से नियम स्वीकारें हैं और उनमें दोष लगा हो अथवा व्रत, नियम स्वीकारें भी नहीं; परंतु विषय-कषाय की अधीनता के कारण हुए पाप जिन्हें खटकते हैं, वैसे सभी जीव प्रतिक्रमण के अधिकारी हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो अपनी बुद्धि एवं क्षयोपशम के अनुसार पाप को पापरूप स्वीकारते हों, पाप से मुक्त होने की जिनकी भावना होती हो और उस
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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