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भूमिका
के भाव से प्रतिक्रमण करके शुद्ध होने का प्रयत्न करे, तो उनका प्रतिक्रमण अपवाद से प्रतिक्रमण कहलाता है। व्यवहारनय से प्रतिक्रमण के अधिकारी :
व्यवहारनय तो योग के कारणों को भी योग रूप से स्वीकारता है। इसलिए वह अपुनर्बंधक या सम्यग्दृष्टि जीवों की रूचि एवं भावना को लक्ष्य में रखकर, उनको भी प्रतिक्रमण के अधिकारी मानता है। उनमे विरति का अध्यवसाय नहीं होता, फिर भी वे पाप को पाप रूप समझते हैं, पाप से लौटकर आत्मशुद्धि की उनकी भावना होती है एवं भावना के अनुरूप उनका प्रयत्न भी होता है । इसलिए कारण में कार्य का उपचार करने वाला व्यवहारनय अपुनर्बंधक एवं सम्यग्दृष्टि को भी प्रतिक्रमण के अधिकारी मानता है। __ चौथे गुणस्थानक वाले अविरत सम्यग्दृष्टि की हालत तो ऐसी होती है कि उनमें पाप को समझने की सूक्ष्म दृष्टि होती है, वे उन पापों के फल को अच्छी तरह से जानते भी हैं; लेकिन चारित्रमोहनीयकर्म रूपी जंजीर से वे ऐसे जकड़े हुए होते हैं कि पाप से छूटने के मार्ग पर वे एक कदम भी नहीं उठा सकते। ऐसे जीवों को पाप करने की रुचि नहीं होती, परंतु पाप के प्रति उनको तीव्र तिरस्कार एवं घृणा होती है और पाप से छूटने की तीव्र भावना होती है । इसलिए वे पाप से छूटने का प्रयत्न भी करते हैं; परंतु अविरति के उदय के कारण अथवा सत्त्व की अल्पता के कारण वे अपने ऊपर नियंत्रण नहीं रख सकते । फिर भी पाप से वापस लौटने की उनकी भावना को लक्ष्य में रखकर व्यवहारनय अविरत सम्यग्दृष्टि को भी प्रतिक्रमण का अधिकारी मानता है।
इससे नीचे की भूमिका में रहे हुए अपुनर्बंधक जीवों को तो पाप की पूर्ण समझ भी नहीं होती, मिथ्यात्व के उदय के कारण सूक्ष्म पापों को तो वे पाप रूप से जान भी नहीं सकते । तो भी जितनी मात्रा में उनका मिथ्यात्व मंद पड़ा हो एवं बोध की जो थोड़ी भी निर्मलता प्राप्त हुई हो, उतनी मात्रा में वे पाप को पाप रूप स्वीकारते हैं, कदाचित पाप करना पड़े तो भी वे तीव्र भाव से याने पाप करने में कोई नुकसान नहीं, ऐसा मानकर पाप नहीं करते। इसके अलावा वे भाव से व्रत स्वीकार नहीं कर सकते, परंतु जो द्रव्य अभिग्रहों का पालन करते हैं, उनमें कहीं भी स्खलना