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वंदित्तु सूत्र
चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम के धारक सर्वविरतिधर महात्मा पाप को पापरूप समझते हैं और ऐसी समझ से ही वे पाप का सर्वथा त्याग करते हैं, फिर भी प्रमादादि दोषों के कारण कभी व्रत मलिन बने वैसी पाप प्रवृत्ति उनसे भी हो जाती है। भव भ्रमण के भय के कारण साधु को जब अपनी भूल समझ में आती है, तब अपने अतिचार उत्पादक विचारों या वर्तन के प्रति उन्हें बहुत ही पश्चात्ताप होता है । इन अतिचारों से वापस लौटने के लिए वे प्रतिक्रमण की विशिष्ट क्रिया करते हैं एवं उसके द्वारा मलिन बने हुए व्रतों को शुद्ध कर पुनः व्रत की मर्यादा में स्थिर हो जाते हैं। इस कारण निश्चयनय ऐसे प्रमत्त संयत को प्रतिक्रमण का
अधिकारी स्वीकारता है। ___ पाँचवें गुणस्थानकवर्ती देशविरतिधर भी अपनी शक्ति अनुसार व्रत स्वीकार करते हैं एवं व्रत के परिणामों का भी अनुभव कर सकते हैं। उनमें पाप की पूरी समझ होने पर भी कर्म की परतन्त्रता के कारण वे सम्पूर्णतया पाप से विराम नहीं पा सकते। फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार थोड़े पाप से अटकते हैं परंतु अधिकतर पाप की उन्हें छूट होती है। गृहस्थ जीवन गुजारते हुए उनसे जो पाप हो जाते हैं अथवा उनको जो पाप करने ही पड़ते हैं वे पाप इन जीवों को शल्य की तरह चुभते हैं। इनसे शुद्ध होने की उनमें तीव्र भावना होती है। इसलिए जब जब उनसे पाप होता है या व्रत में मलिनता आती है, तब-तब ऐसे जीव प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करके, पुनः व्रत की मर्यादा में लौट आने का प्रयत्न करते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म का इस प्रकार का क्षयोपशम होने के कारण उनको उसमें सफलता भी प्राप्त होती है। इसलिए निश्चयनय ऐसे जीवों को भी प्रतिक्रमण के अधिकारी के रूप में स्वीकार करता है। निश्चयनय से प्रतिक्रमण के अधिकारी का भी उत्सर्ग एवं अपवाद से प्रतिक्रमण :
निश्चयनय से देशविरतिधर या सर्वविरतिधर प्रतिक्रमण के अधिकारी कहलाते हैं । जब इन का प्रतिक्रमण अकरण के नियमपूर्वक होता है अर्थात् जिस पाप का प्रतिक्रमण किया हो वह पाप दोबारा नही होता हो, तब उनका प्रतिक्रमण उत्सर्ग से प्रतिक्रमण कहलाता है । अनादि के कुसंस्कारों के कारण से प्रतिक्रमण करने के बाद भी पुन: वैसे ही पाप का सेवन हो जाता हो, फिर भी अगर वे पश्चात्ताप आदि